182- इस प्रकरण में आरोपीगण की यह एक महत्वपूर्ण प्रतिरक्षा है कि प्रकरण की विवेचना उपपुलिस अधीक्षक अ0सा076 के अतिरिक्त निरीक्षक अ0सा077 राकेश भट्ठ, प्रधान आरक्षक अ0सा065 द्दन सिंह, सहायक उपनिरीक्षक अ0सा066 जे0पी0चन्द्राकर, उपनिरीक्षक अ0सा067 प्रकाश सोनी, सहायक उपनिरीक्षक अ0सा068 हृदयलाल बंजारे, उपनिरीक्षक अ0सा071 राजीव शर्मा, सहायक उपनिरीक्षक महादेव तिवारी, उपनिरीक्षक अ0सा075 जे0एल0साहू ने भी की है। जबकि अनुसूचित जाति जनजाति (अत्याचार निवारण) के नियम 7 के अनुसार अधिनियम के तहत पंजीबद्ध अपराध की विवेचना उप पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा की जानी चाहिये। इस संबंध में आरोपीगण के विद्वान अधिवक्तागण द्वारा न्याय दृष्टांत 2005 क्रिमनल लॉ जर्नल 3782 (मध्यप्रदेश) 3⁄4 2005 (4) मनिसा 1 (मध्यप्रदेश), 2001 (1) क्राइम्स 529 पटना प्रस्तुत किया गया है।
183- आरोपीगण की उक्त प्रतिरक्षा के संबंध में इस न्यायालय का यह अभिमत है कि इस प्रकरण में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अतिरिक्त भा0दं0सं0 की विभिन्न धाराएं भी अधिरोपित हैं, एवं अधिनियम की धारा 3(1)(5) का आरोप प्रमाणित भी नही हो पाया है। इसके अतिरिक्त इस प्रकरण में अधिकांश विवेचना उपपुलिस अधीक्षक अ0सा076 आर0के0राय ने की है। उन्होंने अपने प्रतिपरीक्षण की कण्डिका 50 में यह स्वीकार भी किया है कि दिनांक 12/2/2005 को इस प्रकरण में अधिनियम की धारा 3(1)(5) जोड़ी गयी है, तब से उन्हें विवेचना सौपी गयी थी। अ0सा076 आर0के0राय के निर्देश एवं आदेश से अन्य विवेचकों ने भी इस प्रकरण में विवेचना की है। अतः ऐसी स्थिति में नियम 7 का कोई लाभ आरोपीगण को नही दिया जा सकता है। जब किसी प्रकरण में भा0दं0सं0 की विभिन्न धाराएं एवं अनुसूचित जाति व जनजाति अधिनियम की धारा भी होती है, तब यह आवश्यक नही होता है कि प्रकरण की विवेचना अनन्य रूप से उप पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा किया जावे। इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय का न्यायदृष्टांत मध्यप्रदश राज्य बनाम चुन्नीलाल उर्फ चुन्नी सिंह 2009 एआईआर एससीडब्ल्यू पेज क्रमांक 5335 अवलोकनीय है, जिसके पैरा 7 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकित किया है कि:-
7. In the present case there is no denial of the fact that the accusations related to offences under both the Act and the I.P.C. The High Court was therefore not justified in quashing the entire proceedings. The order shall be restricted to the offence under Section 3 of the Act and not in respect of offences punishable under the IPC.अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त न्यायदृष्टांत के अनुसार भी इस प्रकरण में आरोपीगण की यह प्रतिरक्षा स्वीकार योग्य नही है कि उप पुलिस अधीक्षक से भिन्न स्तर के अधिकारियों ने भी विवेचना की है, अतः आरोपीगण भा0दं0सं0 की धाराओं एवं अधिनियम की धारा 3 (1)(5) के दण्डनीय आरोप से दोषमुक्त होने की पात्रता रखते हैं।
भा0दं0सं0 की धारा 307 के संबध में
184- संबंधित आरोपीगण पर यह आरोप है कि उन्होंने संतोष, गिरवर और चंदन की ओर फायर कर उनकी हत्या का प्रयास किया। इस प्रकरण में केवल अ0सा07 चंदन साव ने अपने साक्ष्य की कण्डिका 2 में कथन किया है कि आरोपीगण उसकी तरफ फायर करते हुये और गाली बकते हुये दौड़े। लेकिन प्रकरण में मृतक के शव के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान से गोली के खाली खोखे जप्त नही किये गये हैं। प्रकरण में ऐसा भी कोई साक्ष्य नही है कि आरोपीगण ने अ0सा07 चंदन साव की ओर निशाना करके फायर किया था, या बिना किसी निशाने के फायर किया था। प्रकरण के शेष साक्षी अ0सा08 प्रशांत शर्मा उर्फ संतोष शर्मा एवं अ0सा09 गिरवर साहू दोनों ने ही भा0दं0सं0 की धारा 307 के आरोप के संबंध में कोई भी कथन नही किया है। अतः स्पष्ट है कि अभियोजन भा0दं0सं0 की धारा 307 के आरोप को साक्ष्य के अभाव में प्रमाणित नही कर पाया है।
आयुध अधिनियम की धारा 25-27 के आरोप के संबध में निष्कर्ष
185- इस प्रकरण में पूर्व पीठासीन अधिकारी श्री ए0आर0धु्रव द्वारा आरोपी प्रभाष सिंह, सत्येन माधवन, तपन सरकार, बॉबी उर्फ विद्युत चौधरी, रंजीत सिंह, मंगल सिंह एवं शैलेन्द्र सिंह ठाकुर को आयुध अधिनियम की धारा 25-27 का आरोप सुनाया गया था। आयुध अधिनियम की धारा 39 यह प्रावधान करती है कि धारा 3 के उल्लंघन में बिना किसी लायसेंस के आयुध रखे जाने पर आरोपियों के अभियोजन हेतु जिला मजिस्टेंट से अभियोजन की स्वीकृति प्राप्त करना चाहिये। यह एक आज्ञापक प्रावधान है। आज्ञापक प्रावधान के संबंध में माननीय छ0ग0 उच्च न्यायालय का न्यायदृष्टांत संतोष कुमार एवं अन्य बनाम छ0ग0 राज्य 2006 क्रिम.लॉ जर्नल पेज 1185 एवं आशीष सिन्हा बनाम छ0ग0 राज्य 2008 (3) सी.जी.एल.जे. 310 अवलोकनीय है। आयुध अधिनियम 1959 की धारा 39 के तहत प्राप्त की गयी अभियोजन की स्वीकृति को अ0सा029 छन्नूलाल निर्मलकर ने दो बार दिनांक 02/12/2009 एवं दिनांक 21/8/2012 को उपस्थित होकर आरोपी प्रभाष सिंह, सत्येन माधवन, तपन सरकार, शैलेन्द्र सिंह व मंगल सिंह के लिये प्रमाणित किया है, जो क्रमशः प्रदर्श पी 95 एवं प्रदर्श पी 120, छाया प्रति प्रदर्श पी 120 सी है। इस संबंध में अ0सा029 छन्नूलाल निर्मलकर ने अपने साक्ष्य की कण्डिका 1 और 7 में कथन किया है कि वह जिला कलेक्टर कार्यालय में लायसेंस शाखा में सहायक ग्रेड 2 के पद पर पदस्थ है, एवं वह जिला मजिस्टेंट, दुर्ग के आदेश क्रमांक 318 अनु.लिपिक 2005 दिनांक 29/7/2005 की कार्यालय प्रति लेकर उपस्थित हुआ है, जिसके अनुसार अपराध क्रमांक 141/05 में आरोपी तपन सरकार उर्फ अमिताभ से जप्त एक देशी कट्टा, एक जिंदा कारतूस, आरोपी प्रभाष सिंह एवं आरोपी सत्येन माधवन से जप्त एक-एक कट्टा एवं एक-एक कारतूस का खोखा, आरोपी शैलेन्द्र ठाकुर
से जप्त दो लोहे का 303 बोर का कट्टा, 303 बोर के पीतल के कारतुस का खोखा व नौ नग जिंदा कारतूस के संबंध में अभियोजन की स्वीकृति दी गयी थी, जिसके संबंध में पुलिस अधीक्षक द्वारा पत्र प्रदर्श पी 96 (प्रदर्श पी 96 सी) व प्रदर्श पी 119 (प्रदर्श पी 119 सी) पत्र लिखा गया था, जिसमें अतिरिक्त जिला मजिस्टेंट डी.डी.सिंह के हस्ताक्षर है, जिन्हें वह पहचानता है।
186- इस प्रकार अ0सा029 छन्नूलाल निर्मलकर ने उक्त आरोपियों के संबंध में आयुध अधिनियम की धारा 39 के तहत दी गयी अभियोजन की स्वीकृति प्रदर्श पी 95 एवं प्रदर्श पी 120 को प्रमाणित किया है, जिसे दुर्ग जिले के तात्कालीन अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी दुर्ग द्वारा जारी किया गया था। लेकिन अ0सा029 छन्नूलाल निर्मलकर ने आरोपी रंजीत सिंह के संबंध में अभियोजन की स्वीकृति के संबंध में कोई कथन नही किया है। जहां तक आरोपी बॉबी उर्फ विद्युत चौधरी का प्रश्न है, तो उससे फायर आर्म्स की जप्ती ही नही की गयी है। आरोपी विद्युत चौधरी के विरूद्ध पूर्व पीठासीन अधिकारी द्वारा आयुध अधिनियम का गलत आरोप विरचित किया गया था। अतः स्पष्ट है कि आरोपी रंजीत एवं बॉबी उर्फ विद्युत चौधरी आयुध अधिनियम की धारा 25-27 के आरोप से दोषमुक्त होने की पात्रता रखते हैं।
187- आयुध अधिनियम 1959 की धारा 39 के तहत प्रस्तुत प्रदर्श पी 95 की स्वीकृति के संबंध में आरोपीगण के विद्वान अधिवक्तागण ने इस न्यायालय के समक्ष दो प्रतिरक्षा रखी है (1) अभियोजन की स्वीकृति अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी द्वारा दी गई है, जबकि अधिनियम के अनुसार अभियोजन की स्वीकृति देने का अधिकार जिला मजिस्टेंट अर्थात् कलेक्टर को है। अतः इस प्रकरण में प्रदत्त अभियोजन की स्वीकृति विधि अनुसार नही है। (2) इस प्रकरण के विवेचक अ0सा076 आर.के.राय ने अपने साक्ष्य की कण्डिका 97 में यह स्वीकार किया है कि अभियोजन की अनुमति प्राप्त करते समय उन्होंने जो आवेदन पत्र प्रषित किया था, उसके साथ जप्तशुदा आयुध को प्रेषित नही किया था। अतः स्पष्ट है कि इस प्रकरण में अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी ने जप्तशुदा आयुधों के अवलोकन किये बगैर अभियोजन की स्वीकृति प्रदत्त किये हैं, जो माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय के न्यायदृष्टांत 2008 (2) मनिसा 132 (एमपी), 1998 (2) मनिसा 1, (एमपी) के अनुसार वैध स्वीकृति नही है। अतः उक्त दोनों प्रतिरक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुये आरोपीगण के विद्वान अधिवक्तागण ने इस न्यायालय से निवेदन किया है कि आरोपी प्रभाष सिंह, तपन सरकार एवं सत्येन माधवन को आयुध अधिनियम की धारा 25-27 के आरोप से दोषमुक्त किया जावे।
188- जहां तक प्रतिरक्षा क्रमांक 1 का प्रश्न है तो इस संबंध में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय का न्यायदृष्टांत विजय बहादुर उर्फ बहुदार बनाम म0प्र0राज्य 2002 (4) एमपीएचटी पेज क्रमांक 167 अवलोकनीय है, जिसमें माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने आयुध नियम 1962 के नियम 2 (एफ) में परिभाषित परिभाषा का उल्लेख कर यह भी निर्धारित किया है कि ‘‘अधिनियम की धारा 39 सहपठित धारा 2 (च)(।।) के अधीन अपर जिला मजिस्टेंट द्वारा प्रदान की मंजुरी विधि मान्य मंजुरी है, क्योकि परिभाष के अनुसार जिला मजिस्टेंट में अतिरिक्त जिला मजिस्टेंट भी है।
189- जहां तक आरोपीगण की द्वितीय प्रतिरक्षा का प्रश्न है तो इस संबंध में यह सही है कि माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने न्यायदृष्टांत 1998 (2) मनिसा पेज क्रमांक 01, 2008 (2) मनिसा पेज क्रमांक 132 में यह अभिनिर्धारित किया है कि कन्ट्रीदमेड रिवाल्वर जिला मजिस्टेंट को प्रेषित नही किया गया था, तब धारा 39 के तहत दी गयी अभियोजन की स्वीकृति को वैध नही माना जा सकता है। लेकिन इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय तीन न्यायधिपतियों की पीठ द्वारा निराकृत न्यायदृष्टांत मदनमोहन सिंह विरूद्ध उत्तरप्रदेश राज्य एआईआर 1954 एस.सी. पेज नम्बर 637 के पैरा 7 अवलोकनीय है, जिसमें आयुध अधिनियम 1959 की धारा 39 के संबंध में पैरा 7 में यह अवलोकित किया है कि:-
7. It is contended by the learned counsel for the appellant that the sanction is not a valid or sufficient sanction in law, firstly because it is not signed by the Excise Commissioner but purports to have been signed by his Personal Assistant. The other point taken is, that not only there is nothing in the letter, which purports to be a reply to a wireless message received from the Collector of Meerut, to show that the sanction was given in respect of the facts consisting the offence, but the prosecution did not prove, by any extraneous evidence, that the material facts were placed before the sanctioning authority. The first ground does not impress us much. Mr. R. Dikshit, the Personal Assistant to the Excise Commissioner, has been examined as a witness for the prosecution and he proves another document 'to wit' Ex. P. 11 which purports to be draft of the letter of which Ex. P-10 is a copy.This draft, according to the witness, constitutes the original order of Excise Commissioner and contains his signature. The witness says : "On the paper marked Ex. P-11 there is the signature of the Excise Commissioner below the word 'approved'. We are not sure that, this is quite the proper way of according sanction; for the 'approval' might be merely of the correctness of the draft. But at the same time we do not want to be too technical and we would hold therefore that the sanction was in fact given by the Excise Commissioner.190- अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त न्यायदृष्टांत के अनुसार प्रदर्श पी 95 और प्रदर्श पी 96 से यह दर्शित होता है कि पुलिस उपमहानिरीक्षक/ वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने जिला दण्डाधिकारी दुर्ग को घटना का दिनांक, फायर आर्म्स का प्रकार, प्रथम सूचना पत्र व जप्ती पत्रक की छाया प्रति प्रेषित किये थे। तब अतिरिक्त जिला मजिस्टेंट ने प्रदर्श पी 95 एवं 120 की अभियोजन की स्वीकृति प्रदान की थी। अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के उक्त न्यायदृष्टांत के अनुसार धारा 39 की स्वीकृति प्रदर्श पी 95 एवं 120 में सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति की गयी है। अतः यह नही माना जा सकता कि प्रदर्श पी 95 एवं प्रदर्श पी 120 की अभियोजन स्वीकृति अवैध है।
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