Monday, 20 April 2015

बाबी ढिल्लन सैनी आ. स्व. श्री हरवंश सिंह ढिल्लन विरूद्ध श्रीमती जोगिन्दर कौर बेवा

 

न्यायालय षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश, दुर्ग, जिला दुर्ग(छ.ग.)
(पीठासीन अधिकारी-कु. संघपुष्पा भतपहरी)
सी.ए. .-00000602014
व्यवहार वाद क्र.-60ए/2014
संस्थापित दिनांक-10/09/2014

बाबी ढिल्लन सैनी आ. स्व. श्री हरवंश सिंह ढिल्लन,
जौ. श्री सर्वजीत सिंह सैनी, उम्र-35 वर्ष,
साकिन-मकान नं.-एम.आई.जी.-2/ए, 4/24,
जवाहर नगर भिलाई,
तहसील व जिला-दुर्ग (छ.ग.) ............................आवेदक

।। विरूद्ध ।।

01.. श्रीमती जोगिन्दर कौर बेवा 
स्व. श्री हरवंश सिंह ढिल्लन उम्र-55 वर्ष,
02.. कु. कुलदीप कौर ढिल्लन 
आ. स्व. श्री हरवंश सिंह ढिल्लन 
उम्र-33 वर्ष, 
प्रतिवादी क्र.-01 व 02 दोनों 
निवासी मकान नं.-एम.आई.जी.-2/ए 4/24 
जवाहर नगर भिलाई, तहसील व जिला-दुर्ग (छ.ग.)
03.. श्रीमती बलबीर कौर ढिल्लन बघेल, 
आ. स्व. श्री हरवंश सिंह ढिल्लन, पत्नि 
श्री शैलेन्द्र बघेल, उम्र-26 वर्ष, 
निवासी-127 शिखर अपार्टमेंट, स्मृति नगर, 
भिलाई, तहसील व जिला-दुर्ग (छ.ग.)
04.. श्री संदीप गुप्ता आ. श्री सुनील कुमार गुप्ता, 
उम्र लगभग-50 वर्ष, सा.-20बी/35 नेहरू नगर 
पश्चिम, भिलाई, तहसील व जिला-दुर्ग (छ.ग.)
05.. ग्रेजुएट प्रापर्टीज प्रा. लि. भिलाई
द्वारा डायरेक्टर श्री अशोक  कुमार गुप्ता,
आ. श्री एल.डी.गुप्ता, उम्र-67 वर्ष लगभग,
सा.-20 बी/5 एवं 6 नेहरू नगर, पश्चिम
भिलाई, तहसील व जिला-दुर्ग (छ.ग.)
06.. नगर पालिक निगम भिलाई,
07.. छ.ग. शासन,
द्वारा कलेक्टर-दुर्ग (छ.ग.) ................अनावेदकगण
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वादी द्वारा श्री के.के.द्विवेदी अधिवक्ता। 
प्रतिवादी क्र.-01, 02 एवं 03 द्वारा श्री अनुराग ठाकर अधिवक्ता। 
प्रतिवादी क्र.-04 एवं 05 द्वारा श्री बृजेश मिश्रा अधिवक्ता।
प्रतिवादी क्र.-06 एकपक्षीय।
प्रतिवादी क्र.-07 अनुपस्थित।
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।। आदेश ।।
 (आज दिनांक ........ 20/03/2015 ...........को पारित)
01.. इस आदेश द्वारा दिनांक 09/09/2014 को आवेदक/वादी की ओर से प्रस्तुत आवेदन अंतर्गत आदेश-39, नियम 01 व 02 सहपठित धारा-151 व्य.प्र.सं. जो कि आई.ए.नं.-01 है, का निराकरण किया जा रहा है।
02.. वादी का उपरोक्त आवेदन इस प्रकार है कि आवेदक एवं अनावेदकगण क्र. -01 से 03 जन्म एवं धर्म से सिख हैं, इसलिये इन पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रावधान लागू होते है। आवेदक एवं अनावेदक क्र. -02 एवं 03 स्व. श्री हरवंश सिंह आ. स्व. श्री मंहेगा सिंह की पुत्रियां एवं प्रतिवादी क्र.-01 स्व.श्री हरवंश सिंह आ. स्व. श्री मंहेगा सिंह की पत्नि है। इस तरह हिन्दूक उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार आवेदक एवं अनावेदक क्र.-01 से 3 स्व. श्री हरवंश सिंह आ. स्व. श्री मंहेगा  सिंह के श्रेणी 1 के उत्तराधिकारी हैं, इसलिये स्व. हरवंश सिंह की संपत्ति में  आवेदक एवं अनावेदकगण क्र.-01 से 03 का बराबर का हक व हिस्सा है। आवेदक एवं अनावेदक क्र.-01 से 03 स्व. श्री हरवंश सिंह आ. स्व. श्री मंहेगा  सिंह के जीवन काल से संयुक्त हिन्दू  परिवार के सदस्य थे तथा श्री हरवंश सिंह संयुक्त हिन्दूं परिवार के मुखिया एवं संचालक थे, इसलिये आवेदक एवं अनावेदकगण क्र.-02 एवं 03 के पिता तथा अनावेदक क्र.-01 के पति स्वश्री हरवंश सिंह संयुक्त परिवार की ओर से व्यवसाय करते थे और उक्त व्यवसाय से अपने स्वयं एवं अनावेदक क्र.-01 के नाम पर विभिन्न स्थानों पर भूमि व मकान क्रय किया क्योंकि परिवार के अन्य सदस्य नाबालिग थे।
क्रय की गयी संपत्ति का संपूर्ण विवरण अनुसूची-1 में  उल्लेखित है।
अनुसूची-1 वाद पत्र. के साथ संलग्न है और वाद पत्र का भाग है।
अनावेदक क्र.-01 प्रारंभ से घरेलू महिला थी तथा उसकी स्वयं की कोई स्वतंत्र आय नहीं थी, जबकि आवेदिका अपनी स्कूल की पढाई के साथ साथ अपने पिता के साथ संयुक्त परिवार के व्यवसाय के संचालन में सहयोग करती थी।
03.. वादी का आवेदन आगे इस प्रकार है कि संयुक्त परिवार के व्यवसाय से अर्जित आय से क्रय की गयी सभी संपत्तियों पर आवेदक एवं अनावेदकगण क्र.-01 से 03 तक का बराबर का हक व हिस्सा है, किन्तु अनावेदकगण आवेदक के हक व हिस्सा देने से इंकार कर दिया है, इसलिये आवेदक ने अनावेदकगण के विरूद्ध एक दावा वास्ते हक घोषणा का प्रस्तुत किया है, कि अनुसूची-1 में  वर्णित संपत्तियों में  वादी तथा प्रतिवादी क्र.-01 से 3 बराबर के घोषित किया जावे। आवेदक एवं अनावेदक क्र.-01 एवं 02 अभी भी संयुक्त परिवार के सदस्य हैं, किन्तु अनावेदक क्र.-01 द्वारा संयुक्त परिवार की संपत्त्यिों की आय एवं कुछ संपत्तियों को विक्रय कर अपने स्वयं के नाम पर संपत्ति क्रय की गयी है, जिस पर वह अपना स्वययं  की होना कहती है और उक्त संपत्ति में  से वादी को हिस्सा देने से इंकार कर रही है, जबकि उक्त संपत्तियों पर भी वादी को बराबर हक है।
04.. वादी का आवेदन आगे इस प्रकार है कि अनावेदकगण द्वारा वाद के लंबन के दौरान वादग्रस्त संपत्तियों को विक्रय कर दिये जाने को तैयार है, इसलिये उन्हें वाद के निराकरण तक किसी भी संपत्ति को विक्रय या अन्यथा व्ययन करने से रोकने हेतु अस्थायी निषेधाज्ञा द्वारा रोक लगाया जाना आवश्यक है। अनावेदकगण द्वारा वाद के लंबन के दौरान वादग्रस्त संपत्तियों को विक्रय कर रकम को व्ययन करने की पूरी योजना बना लिये हैं और यदि उन्हें अस्थायी निषेधाज्ञा द्वारा नहीं रोका गया, तो वे सभी संपत्तियों का विक्रय कर देंगे, जिससे आवेदिका को अपूर्णीय क्षति होगी तथा वाद की बहुलता बढेगी। अनावेदकगण ने अनुसूची-1 में  वर्णित कृषि भूमि में  से भूमि खसरा नं.-24 जो कि मौजा कोहका में  है को प्रतिवादी क्र. -04 एवं 05 को विक्रय कर दिये हैं और बाकी संपत्ति को भी इसी तरह विक्रय कर देवेंगे, इसलिये वाद के निराकरण तक किसी भी संपत्ति को विक्रय या अन्यथा व्ययन करने से रोकने हेतु अस्थायी निषेधाज्ञा द्वारा रोक लगाया जाना आवश्यक है।
05.. वादी का आवेदन आगे इस प्रकार है कि वादग्रस्त संपत्ति स्व. हरवंश सिंह ढिल्लन आ. स्व. मंहेगा  सिंह द्वारा संयुक्त परिवार की आय से संयुक्त परिवार के लिये क्रय की गयी थी, इसलिये सभी संपत्तियों में  वादी को बराबर हक प्राप्त है, इसलिये प्रथम दृष्टया मामला वादी के पक्ष में  है। वादग्रस्त संपत्ति में  वादी का बराबर का हिस्सा है, इसलिये सुविधा का संतुलन आवेदिका के पक्ष में  है। आवेदक द्वारा निवेदन किया गया कि इस आशय का अस्थायी निषेधाज्ञा पारित करें कि वाद के निराकरण तक वादग्रस्त अनुसूची-1 की किसी भी संपत्ति को प्रतिवादीगण विक्रय या अन्यथा व्ययन न करें।
06.. प्रतिवादी क्र.-01 से 03 का यह जवाब है कि आवेदक एम.आर्इ्र.जी. 2ए, 4/24, जवाहर नगर, भिलाई में  निवास नहीं करती है, वरन् अपने पति सर्वजीत सिंह सैनी के साथ निवास करती है। आवेदक एवं अनावेदक क्र.-01 से 03 स्व. श्री हरवंश सिंह के जीवनकाल में  संयुक्त हिन्दूे परिवार के सदस्य थे। अनावेदिका क्र.-01 के पिता स्व. श्री गुरासिंह जोहल एक धनाढ्य कृषक थे तथा पंजाब के रहने वाले थे। उनकी 07 संताने थी। अनावेदिका क्र.-01 के पिता द्वारा अनावेदिका क्र.-01 को विवाह के समय तथा विवाह के पश्चात् कई अवसरों पर स्वअर्जित धन वं संपत्ति विक्रय से प्राप्त से प्राप्त होने वाली आय प्रेमपूर्वक अपनी पुत्री अर्थात अनावेदिका क्र. -01 को प्रदान की जाती थी तथा उसी रकम से अनावेदिका क्र.-01 द्वारा वाद पत्र. के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  उल्लेखित संपत्ति में  से क्र.-01, 04, 05 व 06 में  उल्लेखित संपत्तियां स्वसयं  के नाम पर अपनी स्त्रीधन से क्रय की थी। इसी प्रकार अनुसूची -1 में  क्र.-01 एवं 03 में  वर्णित कृषि भूमि के संबंध में  आवेदक द्वारा कोई भी दस्तावेज माननीय न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया है। वाद-पत्र के संलग्न अनुसूची-1 में  संपत्ति क्र.-7 में  उल्लेखित व्यवसायिक प्लॉट अनावेदिका क्र.-01 या उसके पति के नाम पर नहीं है। अनावेदिका क्र.-02 द्वारा विगत 10 वर्षों से ब्यूटी पार्लर का व्यवसाय किया जाता है तथा उसकी वार्षिक आय लगभग 2,00,000/-रूपये (दो लाख रूपये) है। अनावेदिका क्र.-2 द्वारा स्वययं  के उपयोग हेतु वर्ष 2010 में  स्ववयं  के अर्जित धन से मारूती स्व्फ्टि कार क्रय की थी तथा अनावेदिका क्र.-2 द्वारा वर्ष 2013 में  स्व यं  के अर्जित धन से एक टी.वी.एस.स्कूटी क्रय किया था, जिसका विवरण वाद-पत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  क्र.-8 एवं 9 में  है।
07.. प्रतिवादी क्र.-01 से 03 का जवाब आगे इस प्रकार है कि वाद पत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  क्र.-2,4,5 एवं 6 में  उल्लेखित कृषि भूमि तथा मकान अनावेदिका क्र.-01 द्वारा अपनी स्त्रीधन से क्रय किया है, जो संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति नहीं है। इसी प्रकार वाद-पत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  क्र.-08 एवं 09 में  उल्लेखित वाहन अनावेदिका क्र.-2 द्वारा अपनी स्वअर्जित धन से क्रय किया गया है, वह भी संयुक्त हिन्दूर  परिवार की संपत्ति नहीं है। वाद पत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  क्र.-01 एवं 3 में उल्लेखित भूमि के संबंध में  आवेदिका के द्वारा कोई भी दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है तथा वाद पत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में क्र. -7 में  उल्लेखित संपत्ति कभी भी स्व. श्री हरवंश  सिंह ढिल्लन या अनावेदिका क्र.-1 के नाम पर राजस्व अभिलेखों में  दर्ज नहीं थी। आवेदिका का यह कथन भी पूर्णतः असत्य एवं निराधार है कि उसके द्वारा अपनी पढाई के साथ-साथ अपने पिता के साथ संयुक्त परिवार के व्यवसाय के संचालन में  सहयोग किया जाता था, क्योंकि पिता की मृत्यु के समय आवेदिका की उम्र मात्र 12-13 साल थी।
08.. प्रतिवादी क्र.-01 से 03 का जवाब आगे इस प्रकार है कि वादग्रस्त संपत्तियां अनावेदक क्र.-01 एवं 02 की स्व यं  के स्त्रीधन से क्रय किया गया है, अतः उक्त संपत्तियों पर आवेदिका का कोई भी हक एवं अधिकार नहीं है। अनावेदिका क्र.-01 एवं 02 की स्वअर्जित संपत्ति को विक्रय या किसी भी प्रकार से व्ययन हेतु अनावेदिका क्र.-01 एवं 02 पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। अतः आवेदिका द्वारा प्रस्तुत आवेदन सव्यय खारिज करने का निवेदन किया गया। समर्थन में  श्रीमती जोगिन्दर कौर की ओर से निष्पादित शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है। दस्तावेज के रूप में  प्रतिवादी क्र.-02 की वर्ष 2013-14 का तथा वर्ष 2014-15 का आयकर रिटर्न प्रस्तुत किया गया है।
09.. प्रतिवादी क्र.-04 का जवाब इस प्रकार है कि प्रतिवादी, वादिनी के संबंध में  कुछ नहीं जानता है और न ही प्रतिवादी क्र.-02 व 03 के संबंध में  व्यक्तिगत् रूप से कुछ जानता है, इसलिये वादिनी को उक्त समस्त विवरण को न्यायालय के समक्ष ठोस आधारों पर प्रमाणित करना है। यह इन्कार किया है कि वादिनी एवं प्रतिवादी क्र.-01 से 03 श्रेणी एक के उत्तराधिकारी हैं एवं वादिनी का प्रतिवादी क्र.-01 से 03 का बराबर का हक व हिस्सा संपत्ति में  है। वादिनी की ओर से जो संपत्ति का संपूर्ण विवरण अनुसूची-1 में  उल्लेखित किया गया है वह प्रतिवादी क्र.-4 की जानकारी में  न होने से इंकार किया है। किन्तु वर्तमान परिस्थितियों एवं विलंब से व्यवहार वाद प्रस्तुत करने के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट है कि वादिनी का कोई हक व हिस्सा उसे विधिक रूप से देने का कोई आधार नहीं है और न ही परिवार के सदस्य के रूप में  उसे कोई हक हिस्सा प्राप्त होना है। वर्तमान व्यवहार वाद प्रतिवादी क्र.-04 की संपत्ति के आधार पर जो वाद कारण बतलाकर दायर किया गया है, वह समय बाधित है। जब पूर्व में  प्रतिवादी क्र.-04 को प्रतिवादिनी क्र.-01 ने सिर्फ उसके हक व हिस्से की भूमि बिक्री कर चुकी है, तब वह दुबारा कैसे उसी संपत्ति की बिक्री करने को तैयार है। इस बिन्दु पर वादिनी ने असत्य कथन स्पष्ट रूप से किया है। इस कारण से कोई भी अनुतोष अस्थायी निषेधााज्ञा के माध्यम से प्रदान ही नहीं किया जा सकता एवं वर्तमान आवेदन विधि विपरीत एवं अप्रासंगिक है। इस कारण से वर्तमान आवेदन स्पष्ट रूप से निरस्त किये जाने योग्य है। समर्थन में अभिषेक गुप्ता की ओर से निष्पादित शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है।
10.. प्रतिवादी क्र.-05 का जवाब इस प्रकार है कि आवेदिका एवं अनावेदक क्र.-1 एवं 3 जन्म एवं धर्म से सिक्ख है एवं उन पर हिन्दूक उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के प्रावधान लागू होते हैं। यह समस्त कथन आवेदिका को न्यायालय के समक्ष ठोस आधारों पर प्रमाणित करने पर ही माना जा सकता है अन्यथा नहीं माना जा सकता। वादिनी ने जानबूझकर वर्तमान प्रकरण अवैधानिक लाभ के दृष्टिकोण से गलत ढंग से लाभ प्राप्त करने के दृष्टिकोण से संयुक्त परिवार के व्यवसाय का उल्लेख किया है, जबकि वास्तव में  इस संबंध में  कोई भी दस्तावेज को सरकारी दफ्तर में  प्रस्तुत किया गया हो, इस आशय का कोई भी दस्तावेज अभिलेख में  प्रस्तुत नहीं है और न ही वाद पत्र में  कहीं कोई जिक्र है। व्यवहार वाद समय सीमा के भीतर नहीं है। वर्तमान संपत्ति जो प्रतिवादी क्र.-05 के पक्ष में  पंजीकृत करा दी गयी है, वह चूंकि पूर्व में  ही हो चुका है इसलिये प्रतिवादी क्र.-5 के खिलाफ अब कोई भी अनुतोष विधिक आधार पर दिया नहीं जा सकता।
वर्तमान व्यवहार वाद में  उल्लेखित संपत्तियों की कीमत करोड़ो रूपये में  है और उस पर हक व हिस्सा प्राप्ति का अनुतोष वादिनी द्वारा चाहा गया है, किन्तु न तो वादिनी के द्वारा करोड़ो का मूल्यांकन किया गया है अर्थात मूल्यांकन गलत किया गया है और 1/4 हिस्सा को अनुतोष चाहा जरूर गया है, किन्तु मात्र 500/-रूपये शुल्का अदा किया गया है। जबकि अनुतोष के मुताबिक लाखो में  न्यायशुल्क अदा होना चाहिये। जिसका कि पृथक से आवेदन प्रस्तुत किया गया है। अतः वर्तमान आवेदन अस्थायी निषेधाज्ञा का विधि विपरीत होने से न्यायहित में  निरस्त किये जाने का निवेदन किया।
11.. वादी की ओर से निम्नलिखित माननीय न्यायदृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं-
(1) माननीय न्यायदृष्टांत-गजानंद वि. राजाभाउ 2004(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 67 में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘‘पैतृक संपत्ति में  सह-स्वामी/सहभागी द्वारा वाद कब्जे में  नहीं, यथापूर्व स्थिति बनाए रखने के लिये ईप्सित सीमित व्यादेश प्रदान किया जाना चाहिये।’’
(2) माननीय न्यायदृष्टांत-प्रकाश मानव एवं अन्य वि. अजय एवं अन्य 2003(3) एम.पी.एच.टी. 137 में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘‘व्यादेश का अनुतोष, वैवेकिक अनुतोष है, अस्थायी व्यादेश दिये जाने के लिये आवेदन, समुचित शपथ पत्र द्वारा समर्थित होना चाहिये। यह समुचित अभिवचन होने चाहिये कि संपत्ति के दुर्व्ययन, नुकसान या अन्य संक्रांत होने के बारे में  खतरा है।’’
(4) माननीय न्यायदृष्टांत-श्रीमती इंद्रावती देवी वि. बलु घोष एवं अन्य ए.आई. आर. 1990 पटना में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘ Mandatory injunction issued against landlord to vacate premises and put tenant in possession, Valid."
12.. अनावेदक क्र.-04 एवं 05 की ओर से निम्नलिखित माननीय न्यायदृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं-
(1) माननीय न्यायदृष्टांत- D.S.Lakshmaiah and Another Vs. L.Balasubramanyam and Another 2003 STPL (LE)32288 SC में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- Purchase of property by Karta of the joint Hindu family. Whether presumed to be part of joint Hindu family property. There is no presumption outright. The burden primarily to establish that the Karta was in possession of nucleus of joint Hindu family property capable of purchasing the property in question, is upon the person who claims Joint Hindu family property. Once such nucleus in the hands of Karta is proved. Burden shifts upon the Karta (the person who claims the property to be self acquired) that the property was acquired without the aid of Joint Hindu Family nucleus but out of his independent source of income. However, in the absence of any proof of nucleus of Join Hindu Family in the hands of Karta, the question of the property purchased by him to the Joint Hindu family property will not arise."
(2) माननीय न्यायदृष्टांत- Mandaliranganna & Ors. Etc Vs. T. Ramachandra & Ors. 2008 STPL (LE) 40212 SC में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- Equitable relief, Court will not only take into consideration the basic elements, existence of prima facie case, balance of convenience and irreparable injury. It must take into consideration conduct of parties. Persons who kept quite for long time and allowed another to deal with the properties exclusively. Ordinarily would not entitled to an order of injunction.
13.. प्रकरण में  निम्नलिखित तीन बिन्दुओं के आधार पर उपरोक्त आवेदन का निराकरण किया जा रहा है-
(i) प्रथम दृष्टया मामला,
(ii) सुविधा का संतुलन,
(iii) अपूर्णीय क्षति का मामला।
14-- The grant of interlocutory injunction is a discretionary remedy and in the exercise of judicial discretion, in granting or refusing to grant, the court will take into reckoning the following as guidelines: (1) Whether the persons seeking temporary injunction has made out a prima facie case. This is sine qua non. (2) Whether the balance of convenience is in his favour that is whether it could cause greater inconvenience to him if the injunction is not granted than the inconvenience which the other side would be put to if the injunction is granted. As to that the governing principle is whether the party seeking injunction could be adequately compensated by awarding damages and the defendant would be in a financial position to pay them. (3) Whether the person seeking temporary injunction would suffer irreparable injury. It is, however, not necessary that all the three conditions must obtain. " 15-- In Dalpat Kumar v Prahlad Singh, the Supreme Court ruled that under Order XXXIX Rule 1 of CPC, the Court is, "primarily concerned with the preservation of the property in dispute till legal rights are adjudicated. Injunction is a judicial process by which a party is required to do or to refrain from doing any particular act. It is in the nature of preventive relief to a litigant to prevent future possible injury. In other words, the court, on exercise of the power of granting ad interim injunction, is to preserve the subject matter of the suit in the status quo for the time being. It is settled law that the grant of injunction is a discretionary relief. The exercise thereof is subject to the court satisfying that (1) there is a serious disputed question to be tried in the suit and that an act, on the facts before the court, there is probability of his being entitled to the relief asked for by the plaintiff/defendant; (2) the court's interference is necessary to protect the party from the species of injury. In other words, irreparable injury or damage would ensure before the legal right would be established at trial; and (3) that the comparative hardship or mischief or inconvenience which is likely occur from withholding the injunction will be greater than that would be likely to arise from granting it". 16-- A party is not entitled to an order of injunction as a matter of right or course. Grant of injunction is within the discretion of the court and such discretion is to be exercised in favour of the plaintiff only if it is proved to the satisfaction of the court that unless the defendant is restrained by an order of injunction, an irreparable loss or damage will be caused to the plaintiff during the pendency of the suit. The purpose of temporary injunction is, thus, to maintain the status quo. The court grants such relief according to the legal principles - ex debito justitiae. Before any such order is passed the Court must be satisfied that a strong prima facie case has been made out by the plaintiff including on the question of maintainability of the suit and the balance of convenience is in his favour and refusal of injunction would cause irreparable injury to him. In order to determine whether the balance of convenience lies the court must weigh two matters. The first is to protect the plaintiff against injury by violation of his rights for which he could not be adequately compensated in damages recoverable in the action if the uncertainty were resolved in his favour at the trial. The second matter is the defendant's need to be protected against injury resulting from his having been prevented from exercising his own legal rights for which he could not be adequately compensated under the plaintiff's undertaking in damages if the uncertainty were resolved in the defendant's favour at the trial. 18-- Where there is a clear breach the question of the balance of convenience does not arise. Where the grant or refusal of an interlocutory injunction will have the practical effect of putting an end to the action the degree of likelihood that the plaintiff would have succeeded in establishing his right to an injunction if the action had gone to trial is a factor to be brought into the balance by the judge in weighing the risks that injustice may result from his deciding the application one way rather than the other. 19-- Monetary compensation- Injunction should be denied if the relief can be compensated in terms of money. It is an important principle, which has its own limitations and it is not always true that whenever there is an alternative relief to an injunction, the Court must deny the remedy to the plaintiff. 20-- A person who had kept quiet for a long time and allowed another to deal with the properties exclusively, ordinarily would not be entitled to an order of injunction. The Court will not interfere only because the property is a very valuable one.
(i) प्रथम दृष्टया मामला,
21.. वादी ने दावा वादपत्र के साथ संलग्न अनुसूची-1 में  वर्णित संपत्ति वादभूमि पर प्रतिवादीगण के साथ 1/4 भाग का हक घोषित करने का अनुतोष चाहा गया है। वादी के द्वारा विक्रय पत्र भूमि ख.नं.-33/7, 15, 36/16 मौजा कोहका, दिनांक 23/02/1984, विक्रय पत्र ख.नं.-33/1, 4, 35/3, 36/14, 36/6, 35/17, 35/15, 35/11, 12, 36/7, 11 मौजा कोहका, दिनांक 23/02/1984, किश्तबंदी खतौनी वर्ष 1994-95, दिनांक 3/2/1995, विक्रय पत्र भवन क्र.-35/सी-1, चतुर्थ तल चौहान टाउन, दिनांक 05/05/2014, उप पट्टा भवन क्र.-35, विक्रय पत्र विक्रेता जोगिन्दर कौर, क्रेता संदीप गुप्ता, दिनांक 23/12/2013, विक्रय पत्र विक्रेता जोगिन्दर कौर, क्रेता ग्रेजुएट प्रापर्टीज प्रा.लि., भिलाई तथा खसरा पांचसाला ग्राम कोहका, दिनांक 07/08/2014, आयकर विवरणी, दिनांक 23/2/1989, सूचना के अधिकार अधि. के तहत् थाना-जामुल से प्राप्त जानकारी दिनांक 13/01/2015, शिकायत जांच प्रतिवेदन थाना-जामुल दिनांक 15/02/2014, पुलिस अधीक्षक को आवेदन दिनांक 29/09/2014, विक्रय पत्र-ग्राम जुनवानी दिनांक 05/05/2014, विक्रय पत्र ग्राम कोहका दिनांक 21/02/1984, मांग सूची दिनांक-24/10/1986, सूचना के अधिकार के तहत् प्राप्त जानकारी नगर पालिक निगम, भिलाई दिनांक 10/09/2014 तथा सुपेला स्थित वादग्रस्त दुकान के संबंध में  नगर पालिक निगम भिलाई से प्राप्त जानकारी पृष्ठ क्र. -1 से 110 तक दिनांक 16/04/2013 प्रस्तुत किया है।
22.. माननीय न्यायदृष्टांत-मेसर्स गुजरात बोटलिंग कंपनी लिमिटेड बनाम कोको कोला कंपनी, 1995 (5) सु.को.के. 545, 1995 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू. 3521सु.को. में  यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- साम्यपूर्ण अनुतोष-अस्थायी व्यादेश चूंकि संपूर्ण तौर पर साम्यपूर्ण प्रकृति का अनुतोष होता है अतः न्यायालय की अधिकारिता का अवलंब लेने वाले पक्षकार को यह दर्शाना होगा कि उसके भाग पर कोई चूक नहीं थी, वह अनुचित नहीं था अथवा असामान्यपूर्ण नहीं था। अंतरिम व्यादेश प्राप्त करने वाले पक्षकार का आचरण ईमानदारी पूर्ण व विधिक होना चाहिये।
23.. वादी ने यह दावा वाद पत्र के साथ अनुसूची-अ में  वर्णित कुल संपत्ति क्र. -01 से 09, जिसमें  से संपत्ति क्र.-08 एवं 09 चल संपत्ति है और शेष संपत्ति अचल संपत्ति है, के सभी में  1/4 भाग का हक, हिस्से की घोषणा का दावा पेश किया गया है। अनुसूची-अ में  उल्लेखित संपत्ति क्र.-01 से 09, जो कि वाद संपत्ति है, के सभी के संबंध में  दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है। वाद संपत्ति क्र.-01 से 09 पैतृक संपत्ति है या संयुक्त परिवार की संपत्ति है या प्रतिवादी क्र.-01 की स्त्रीधन है, या पैतृक संपत्ति के आय से या संयुक्त परिवार की संपत्ति की आय से या स्त्रीधन से क्रय की गयी है, यह सभी प्रश्न साक्ष्य की विषय-वस्तु है। कब्जा की गयी भूमि, लीज़ की भूमि पर हक व स्वत्व की घोषणा की मांग की जा सकती है, या नहीं यह भी साक्ष्य की विषय’-वस्तु है।
24.. हरवंश सिंह ढिल्लन के नाम से वाद संपत्ति होने संबंधी कोई दस्तावेज पेश नहीं। हरवंश सिंह ढिल्लन की मृत्यु को 25 वर्ष पूर्व होना बताया गया है। वादी की वर्तमान आयु 35 वर्ष है अतः वह 10-12 वर्ष की आयु में  पिता के व्यवसाय संचालन करती थी, विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता है। प्रतिवादी क्र. -02 की ओर से पेश आयकर से संबंधित दस्तावेज से यह प्रतीत हो रहा है कि वह ब्यूटी पार्लर संचालित करती है। वाहन स्कूटी पेप प्लस की आर.सीबुक से प्रतिवादी क्र.-02 उसकी पंजीकृत स्वामी होना प्रतीत हो रही है। संपत्ति क्र.-08 का आर.सी.बुक प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्रस्तुत दस्तावेज से यह प्रतीत हो रहा है कि वाद भूमियों ख.नं.-24 का टुकड़ा रकबा 0.808 हेक्टेयर (2 एकड़) की भूमि जो मौजा ग्राम कोहका प.ह.नं. 14/19 रा.नि.मदुर्ग-1, ब्लाक दुर्ग, नगर पालिक निगम भिलाई को प्रतिवादी क्र.-01 के द्वारा क्रमशः प्रतिवादी क्र.-04 एवं 05 को तीन वर्ष पूर्व विक्रय किया जा चुका है। उक्त विक्रय के समय कोई आपत्ति या आक्षेप किया गया हो, ऐसा कोई दस्तावेज वादी ने प्रस्तुत नहीं किया है। वाद-भूमि को प्रतिवादीगण कब, किससे, कितनी राशि में  विक्रय करना चाह रहे हैं, प्रयास व तैयारी के संबंध में  कोई समर्थित शपथ पत्र किसी का, प्रस्तुत नहीं किया गया है और न ही इस संबंध में कोई विवरण ही दिया गया है। वाद-भूमि में  कब्जा के संबंध में  भी कोई दस्तावेज वादी ने पेश नहीं किया है। अतः प्रथम दृष्टया मामला वादी के पक्ष में  होना प्रतीत नहीं होता है।
(ii) सुविधा का संतुलन,
25.. प्रकरण में  चल व अचल दोनों संपत्तियों में  1/4 भाग घोषणा का दावा किया गया है, पर ंतु सभी संपत्तियों के संबंध में  दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्रतिवादी क्र.-04 और 05 के पक्ष में  पंजीकृत बयनामा और विक्रय पत्र का निष्पादन हो चुका है। प्रतिवादी क्र.-02, जो कि ब्यूटी पार्लर का संचालन करती है, के नाम से ब्यूटी पार्लर के संबंध में  आयकर विवरणी पेश है और आर.सी. बुक में  पंजीकृत स्वामी के रूप में  उसका नाम दर्ज है। प्रतिवादी क्र.0-02 को अपने ब्यूटी पार्लर संचालन के लिये स्कूटी पेप प्लस के उपयोग की आवश्यकता अवश्य ही प्रतिदिन होती होगी। प्रतिवादी क्र. -04 एवं 05 के द्वारा पूर्ण प्रतिफल देकर पंजीकृत विक्रय पत्र के द्वारा क्रय किया गया है। स्वत्व एवं स्वामित्व के संबंध में  विक्रय तीन वर्ष पूर्व ही हो चुका है। ऐसी स्थिति में  वह संपत्ति जो उनके द्वारा क्रय किया गया है, उन्हें उपयोग व उपभोग से वंचित नहीं किया जा सकता। प्रतिवादी क्र.-01 से 03 के द्वारा अन्य भूमियों का व्यय किया जा रहा हो, ऐसा कोई व्ययन करने संबंधी कोई इकरारनामा आदि निष्पादित किया गया हो, ऐसा प्रकरण में  पेश नहीं है और न ही इस संबंध में  शपथ पत्र है। अतः सुविधा का संतुलन भी वादी के पक्ष में  होना नहीं पाया जाता है।
(iii) अपूर्णीय क्षति का मामला
26.. वाद संपत्ति क्र.-08 एवं 09 चल संपत्ति है जो दैनिक उपयोगी मशीनरी वस्तुएं हैं। पंजीकृत विक्रय पत्र के माध्यम से पूर्ण प्रतिफल दे करके जो भूमि क्रय की गयी है, उसको क्रय करने वालों के पक्ष में  स्वत्व और स्वामित्व अंतरित हो चुका है और विक्रय करने वाले की ओर से कोई आक्षेप नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में  प्रतिवादी क्र.-04 एवं 05 सद्भाविक क्रेता है और स्वामी के विरूद्ध स्थायी निषेधाज्ञा का आदेश इस स्तर पर पारित किया जाना वादी के बजाय उन्हें अपूर्णीय क्षति कारित करना होगा, क्योकि विक्रयशुदा भूमि वादी के संयुक्त परिवार की संपत्ति से या स्त्रीधन से क्रय की गयी भूमि है या पैतृक संपत्ति है, यह साक्ष्य के द्वारा ही सुनिश्चित हो सकेगा। प्रतिवादी क्र.-01 और 03 के द्वारा अन्य वाद संपत्तियों को अंतरित किया जा रहा है, ऐसा विवरण के अभाव में  नहीं पाया जाता है। अतः वादी को ऐसी क्षति, जिसकी पूर्ति अन्य प्रकार से, जैसे कि धन से नहीं हो सकती हो, ऐसा इस प्रकरण में  नहीं पाया जाता है। अतः अपूर्णीय क्षति का मामला भी वादी के पक्ष में  नहीं पाया जाता है। 
27.. उपरोक्त तीनों बिन्दुओं के सकारण निष्कर्ष एवं विवेचना के अनुसार प्रथम दृष्टया मामला, सुविधा का संतुलन, तथा अपूर्णीय क्षति का मामला, वादी के पक्ष में  होना नहीं पाया जाता है। अतः वादी की ओर से प्रस्तुत आवेदन अंतर्गत आदेश-39, नियम-01 व 02 व्य.प्र.सं. स्वीकार योग्य न होने से न्यायहित में  अस्वीकार कर निरस्त किया जाता है।
 मेरे निर्देश पर टंकित
 दुर्ग, दिनांक-20/03/2015

(कु. संघपुष्पा भतपहरी)
षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश,
दुर्ग. (छ.ग.)

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