न्यायालय षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश, दुर्ग, जिला दुर्ग (छ.ग.)
(पीठासीन अधिकारी-कु. संघपुष्पा भतपहरी)
RCA-100800001632013
व्यवहार अपील क्र.-20ए/2013
संस्थापित दिनांक-23/04/2013
01.. श्रीमती अंजनी बाई, पति स्व. चैन सिंह, उम्र लगभग-66 वर्ष,
02.. देव सिंह, आ. स्व. चैन सिंह, उम्र लगभग-41 वर्ष,
03.. सीमा चौहान आ. स्व. चैन सिंह, उम्र लगभग-32 वर्ष,
निवासीगण-जोन-1, बी.एम.वाय, चरोदा,
तहसील-पाटन, जिला-दुर्ग,
04.. श्रीमती शिव कुमारी चौहान, पति श्री जगतूू राम ठाकुर,
निवासी-बस स्टेंड के पास, सिरपुर,
तहसील व जिला-महासमुंद
05.. श्रीमती दीपा चौहान, पति श्री संतोष कुमार चौहान,
निवासी-कोटा, रायपुर, तहसील व जिला-रायपुर
06.. श्रीमती लक्ष्मी चौहान, श्री गुदेश्वर सिंह चौहान,
निवासी-मलपुरी कनहार, तहसील-धमधा, जिला-दुर्ग (छ.ग.)
जिला-दुर्ग (छ.ग.) ............................अपीलार्थी
।। विरूद्ध ।।
01.. राधेश्याम चौहान, आ. स्व. गयाराम चौहान,, उम्र लगभग-54 वर्ष,
निवासी-क्वा.नं.-106 डी., जोन-1, बी.एम.वाय चरोदा,
तहसील-पाटन, जिला-दुर्ग,
02.. श्रीमती देवकी बाई उपति स्व. फूल सिंह, उम्र लगभग-64 वर्ष,
03.. राजेश उर्फ कमल सिंह, आ. स्व. फूल सिंह उम्र लगभग 36 वर्ष,
04.. जानकी बाई आ. स्व. फूल सिंह, उम लगभग-44 वर्ष,
05.. श्रीमती रेखा, पति श्री किशन, उम्र लगभग-41 वर्ष,
06.. श्रीमती पुष्पा पति श्री शिव श्रीवास, उम्र लगभग-38 वर्ष,
07.. बेला, आ. स्व. फूल सिंह, उम्र लगभग-32 वर्ष,
निवासीगण -क्वा.नं.108 डी. के पास, जोन-1, बी.एम.वाय, चरोदा,
तहसील -पाटन, जिला-दुर्ग छ.ग.
08.. मनोहर, आ. श्री सहदेव सिंगायत, उम्र लगभग-76 वर्ष,
निवासी-सिरसा गेट के सामने भिलाई-3,
तहसील -पाटन, जिला-दुर्ग छ.ग.
09.. छत्तीसगढ़ शासन, द्वारा-जिलाधीश, दुर्ग छ.ग. ......................उत्तरवादी
.................................................................................
न्यायालय श्री पंकज शर्मा, व्यवहार न्यायाधीश, वर्ग-1 भिलाई-3, जिला-दुर्ग (छ.ग.) द्वारा
व्य.वा.क्र.-22अ/12, राधेश्याम चौहान वि. (चैन सिंह) श्रीमती अंजनी बाई वगैरह में
पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांक 22/03/2013 से उत्पन्न यह व्यवहार अपील।
.................................................................................
.................................................................................
अपीलार्थी द्वारा श्री एच.के.तिवारी अधिवक्ता।
उत्तरवादी क्र.-01 द्वारा श्री अभिषेक वैष्णव अधिवक्ता।
उत्तरवादी क्र.-02 से 08 द्वारा री डी.के.वैद्य अधिवक्ता।
उत्तरवादी क्र.-09 पूर्व से एकपक्षीय।
.................................................................................
।। निर्णय ।।
(आज दिनांक ........... . 02/05/2016 . ...............को घोषित)
01.. यह सिविल अपील श्री पंकज शर्मा, व्यवहार न्यायाधीश, वर्ग-1 भिलाई-3, जिला-दुर्ग (छ.ग.) द्वारा व्य.वा.क्र.-22अ/12, राधेश्याम चौहान वि. (चैन सिंह) श्रीमती अंजनी बाई वगैरह में पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांक 22/03/2013 से क्षुब्ध होकर धारा-96 सहपठित आदेश-41, नियम-2 व्य.प्र.सं. अंतर्गत अपीलार्थीगण द्वारा उत्तरवादीगण के विरूद्ध दिनांक 23/04/2013 को पेश की गयी।
02.. अपील के निराकरण हेतु वाद के आवश्यक तथ्य संक्षेप में इस प्रकार है कि वादी तथा प्रतिवादी क्र.-01 व मृतक फूल सिंह तीनों भाईयों के संयुक्त खाता की वादग्रस्त कृषि भूमि मौजा चरोदा पुराना प.ह.नं. -58 वर्तमान प.ह.नं. -2, ब नं. -177 वर्तमान तहसील-पाटन, जिला-दुर्ग में ख.नं. -304/1 का टुकड़ा रकबा 0.35 डिसमिल अर्थात 0.14 हेक्टेयर लगान 0.38 पैसा हैं उक्त जमीन का वर्तमान ख.नं. -304/9 है, को फूलसिंह व चैनसिंह ने वादी की नाबालिग अवस्था में प्रतिवादी क्र.-08 के पक्ष में अवास्तविक विक्रय पत्र के माध्यम से वादी का नाम राजस्व अभिलेख में विलोपित किये जाने की भावना से नाबालिग वादी की संपत्ति बेचने की बिना स्वीकृति के
500/-रूपये में दिनांक 04/05/1972 को बैनामा निष्पादित कर दिया और यह पूर्णतः गुप्त रखा गया। वादग्रस्त भूमि का कब्जा वादी एवं प्रतिवादी फूलसिंह व चैनसिंह के साथ आज तक चला आ रहा है। सन् 2007 में वादी ने अपने परिवार के निवास हेतु प्रतिवादी चैनसिंह से भूमि का आपसी बंटवारा करने का मौखिक प्रस्ताव रखा तथा प्रतिवादी चैनसिंह ने उससे कहा कि वादग्रस्त भूमि में वादी का कोई हक नहीं है वह जमीन उसकी हो गयी है। वादी को उक्त जानकारी पंजीकृत बयनामा दिनांक 04/05/1972 की नकल लेने से प्राप्त हुई। प्रतिवादी मृतक फूलसिंह द्वारा प्रतिवादी क्र.-08 के पक्ष में किया गया विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 तथा प्रतिवादी क्र.-08 के द्वारा प्रतिवादी के पक्ष में किया गया विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 अवास्तविक विक्रय पत्र है एवं विधि के विरूद्ध है। अतः दोनों विक्रय पत्र शून्य घोषित किये जाने तथा वादग्रस्त भूमि को प्रतिवादीगण को उसके स्वरूप में परिवर्तन करने से स्थायी निषेधाज्ञा से निषेधित किये जाने का निवेदन किया गया है।
03.. अपील के आधार इस प्रकार है कि
(1) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने उत्तरवादी क्र.-01/वादी के दावा को स्वीकार कर उत्तरवादी क्र.-01 के दावा में आज्ञप्ति पारित करने में विधि व तथ्य में विभ्रम किया है।
(2) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत मौखिक एवं दस्तोवजी साक्ष्य का परख, मूल्यांकन व जांच करने में कानूनन गलती किया है।
(3) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने ने उत्तरवादी क्र.-01/वादी के दावा में डिक्री पारित करने के लिये जो निष्कर्ष एवं उपपत्ति निकाला है वह आधारहीन व विधि विपरीत होने के कारण निरस्त किये जाने योग्य है।
(4) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने वाद यह राय कायम करने में कानूूनन गलती किया है कि स्व. चैनसिंह एवं फूलसिंह द्वारा प्रतिवादी/उत्तरवादी क्र.-08 के पक्ष में किया गया विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 शून्य है।
(5) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने यह राय कायम करने में कानूूनन गलती की है कि उत्तरवादी क्र.-08 द्वारा अपीलार्थीगण के पति व पिता स्व. चैनसिंह के पक्ष में किया गया विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 शून्य है तथा उपरोक्त दोनो विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 तथा दिनांक 31/12/1996 उत्तरवादी क्र.-01 पर बंधनकारी नहीं है।
(6) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने अपने आदेश पत्र दिनांक 12/03/2013 में यह निर्णित करने के बाद कि उत्तरवादी क्र.-08 का शपथ पूर्वक कथन दिनांक 06/03/2013 प्रतिपरीक्षण के अभाव में साक्ष्य के रूप में ग्राह्य नहीं रह जाता है, के बाद अधीनस्थ न्यायालय ने उत्तरवादी क्र.-08 के अग्राह्य शपथ पत्र में किये गये शपथ पूर्वक कथन का अपने निर्णय की कंडिका-17 में विश्लेषण करते हुए उत्तरवादी क्र.-01 के दावा में आज्ञप्ति पारित करने में कान ूनन गलती किया है।
(7) विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने अपने निर्णय की कंडिका-18 में यह राय कायम करने में कानूनन गलती किया है कि प्र.पी.-01 के विक्रय पत्र में संपत्ति को रहन नहीं बिक्री किया हूं, का उल्लेख इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1972 में जो विक्रय पत्र निष्पादित किया गया था और बाद में सन् 1996 में जब उक्त विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 निष्पादित कराया गया था तब विशिष्ट रूप से उक्त तथ्य का उल्लेख किया गया है, ताकि पूर्व विक्रय पत्र के रहन रखने के प्रमाण स्वरूप निष्पादित किये जाने संबंधी किसी तरह का कोई प्रतिकूल प्रभाव वर्ष 1996 के उक्त विक्रय पर न पड़े ऐसे में भी वास्तव में उक्त विक्रय पत्र. वर्ष 1972 में भूमि को रहन रखने संबंधी संव्यवहार के ही परिणाम स्वरूप भूमि वापस किये जाने के परिपेक्ष्य में निष्पादित किये जाने की स्थिति प्रकट होती है, जबकि उत्तरवादी क्र.-01 के वाद पत्र में विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 रहन होने के संबंध में कोई अभिवचन नहीं किया गया है इस प्रकार अधीनस्थ न्यायालय ने अपने मन से अभिवचन से बाहर जाकर वादी/उत्तरवादी क्र.-01 के पक्ष में नया प्रकरण बना दिया है।
04.. अपील पर उभयपक्ष के विद्वान अभिभाषक को विस्तार से सुना गया। आलोच्य निर्णय एवं आज्ञप्ति, संबंधित अभिलेख, उपलब्ध दस्तावेज एवं साक्ष्य का परिशीलन किया गया।
05.. इस न्यायालय के समक्ष निम्न विचारणीय प्रश्न है कि-
‘‘क्या व्य.वा.क्र.-22अ/12, राधेश्याम चौहान वि. (चैन सिंह) श्रीमती अंजनी बाई वगैरह में पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांक 22/03/2013 को पारित निर्णय एवं आज्ञप्ति, तथ्य एवं विधि अनुरूप है?’’
।। निष्कर्ष के आधार ।।
।। विचारणीय प्रश्न का सकारण निष्कर्ष ।।
06.. व्य.वा.क्र.-22अ/12, राधेश्याम चौहान वि. (चैन सिंह) श्रीमती अंजनी बाई वगैरह में पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांक 22/03/2013 तथा म ूल अभिलेख का अवलोकन किया।
07.. वादी, प्रतिवादी क्र.-01 चैन सिंह एवं फूलसिंह सगे भाई थे। फूलसिंह की मृत्यु होने से प्रतिवादी क्र.-02 से 07 उनके विधिक उत्तराधिकारी हैं। प्रतिवादी क्र.-08 मनोहर प्रकरण का अवास्तविक क्रेता-विक्रेता है तथा वादग्रस्त भूमि, काश्त भूमि होने मात्र के कारण प्रतिवादी क्र.-09 छत्तीसगढ शासन को औपचारिक पक्षकार बनाया गया है, जिससे वादी ने कोई अनुतोष की मांग नहीं किया है। उक्त वाद-भूमि, तीनों भाईयों, वादी राधेश्याम, चैनसिंह एवं फूलसिंह के संयुक्त खाते की पैतृक कृषि भूमि है, जो उन्हें विरासत हक से प्राप्त हुई थी। सन् 1972 में वादी अल्पायु का होकर नाबालिग था, जिसका नाम विलोपित करने के आशय से उनके भाई चैनसिंह एवं फूलसिंह ने प्रतिवादी क्र.-08 मनोहर के नाम से अवास्तविक विक्रय पत्र निष्पादित किया और कालान्तर में दिनांक 31/12/1996 को गोपनीय तरीके से उसी मनोहर से प्रतिवादी चैनसिंह ने अपने नाम से पुनः विक्रय पत्र निष्पादित करा लिया और तब से वाद-भूमि पर वादी एवं प्रतिवादी का कब्जा चला आ रहा है। वादी ने सन् 2007 में जब मृतक चैनसिंह से आपसी बंटवारे की बात किया, तब उक्त विक्रय पत्रों की जानकारी के बाद, विक्रय पत्रों के शून्य, अवास्तविक होने तथा वादी पर बन्धनकारी न होने का दावा, वादी ने विचारण न्यायालय के समक्ष पेश किया।
08.. प्रतिवादीगण की ओर से जवाबदावा पेश करते हुए यह अभिवचन किया गया है कि वादी एवं मृत प्रतिवादी क्र.-01 चैनसिंह के पिता की मृत्यु के पश्चात् घर का मुखिया फूलसिंह चौहान अर्थात मृत प्रतिवादी चैनसिंह एवं राधेश्याम का बड़ा भाई था, जो कर्ता के रूप में परिवार की देखरेख, भरण पोषण एवं शादी विवाह आदि कार्य किया, जिसमें रकम की आवश्यकता पड़ने पर उसने वादग्रस्त भूमि को पंजीकृत विक्रयनामा दिनांक 04/05/1972 के द्वारा प्रतिवादी क्र.-’08 को बिक्री किया था। उसके पश्चात् चैनसिंह एवं फूलसिंह द्वारा राधेश्याम, जो कि बिक्रीनामा दिनांक को नाबालिग था, उसके बालिग होने पर उसकी परवरिश, पढ ़ाई-लिखाई, शादी इत्यादि का कार्य किया गया। शादी के पश्चात् करीब 25-30 वर्षों से वादी परिवार से पृथक निवास कर अपने परिवार का भरण पोषण किया, उसी प्रकार प्रतिवादी क्र.-02, 07 के पिता एवं पति ने अपनी स्व. अर्जित आय से अपने परिवार का भरण पोषण एवं शादी किया। मृत प्रतिवादी फूलसिंह ने घर का मुखिया होने के कारण पारिवारिक आवश्यकता के लिये वास्तविक प्रतिफल प्राप्त करके वादग्रस्त भूमि का विक्रय किया था। वादी का फूलसिंह एवं चैनसिंह के जीवनकाल तक कभी भी उक्त विक्रयनामा के संबंध में कोई विवाद उत्पन्न न करने तथा विक्रयनामा दिनांक 04/05/1972 के बाद से वादग्रस्त भूमि पर वादी का कोई हक व अधिकार नहीं रहा। वादी द्वारा यह दावा कपोल-कल्पित आधारो पर, बिना वाद कारण के लाया गया है, जिसे अवधि बाधित
होने के कारण प्रचलन योग्य नहीं होना बताते हुए वादी का दावा सव्यय खारिज किये जाने एवं प्रतिकात्मक स्वरूप प्रत्येक प्रतिवादी को 1,000-1,000/- रूपये क्षतिपूर्ति दिलाये जाने का निवेदन किया गया है।
09.. अपीलार्थी की ओर से तर्क किया गया है कि अवास्तविक विक्रय पत्र संबंधी कोई स्पेसिफिक प्लीडिंग नहीं की गयी है। केवल विक्रय पत्र है। स्वयंं वादी ने प्रतिपरीक्षण में परिवार के हित में विक्रय करने का साक्ष्य दिया है तथा वाद पत्र में ऐसा कोई अभिवचन नहीं है कि बिना विधिक आवश्यकता के विक्रय की गयी है। प्रतिवादी क्र. -01 ने अपने साक्ष्य में मंजू की शादी के लिये विक्रय करने का साक्ष्य दिया है परंंतु इस संबंध में कोई अभिवचन नहीं है। अभिवचन से बाहर जाकर के साक्ष्य पेश किया गया है और विद्वान विचारण न्यायालय को प्लीडिंग से बाहर प्रकरण नहीं बनाना चाहिये था, कर्ज की सुरक्षा या रहन के लिये का कोई साक्ष्य नहीं है। वर्ष 1972 में बिक्री जमीन के आसपास का कोई विक्रय पत्र पेश नहीं किया गया है। नामांतरण नहीं हुआ है, जो कि तीनों भाईयों के नाम पर वर्ष 1996 तक दर्ज रहा है। लगान पटाने का कोई अभिवचन नहीं है। विद्वान विचारण न्यायालय ने जो संपूर्ण विक्रय पत्र को शून्य घोषित करने का निष्कर्ष दिया है, वह साक्ष्य व अभिवचन के विपरीत है। निषेधाज्ञा का दावा नहीं है। निषेघाज्ञा दी गयी है। साक्ष्य के बिना क्या स्वीकृत अभिवचन जो मेरे विपरीत है मेरे विरूद्ध पढ़ा जायेगा, यह इस प्रकरण में विचारणीय है। पूरे विक्रय पत्र को शून्य घोषित करने का निर्णय त्रुटिपूर्ण है। वादी के हिस्से तक का शून्य हो सकता था। आदेश-06 नियम-04 व्य.प्र.सं. के आज्ञापक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया है। प्रतिवादी क्र.-08 का जवाबदावा सत्यापित भी नहीं है। निर्णय व डिक्री विधि के अनुकूल नहीं है।
10.. दूूसरी ओर प्रतिवादी क्र.-01 की ओर से यह तर्क दिया गया है कि निर्णण में उल्लेखित वाद प्रश्न क्रमांक-04, 05 एवं 06 को कोई चुनौती नहीं दी गयी है, इसलिये कंस्ट्रिक्टिव रेस जेडुकेटा का सिद्धांत लागू होगा। माता नैसर्गिक गार्जियन थी और उसके रहते भाई के द्वारा निष्पादित विक्रय पत्र प्रारंंभ से ही शून्य है। खसरा प्रवृष्टि की इंट्री प्रस्तुत नहीं की गयी है। प्रतिवादी क्र.-08 के जवाबदावा का कोई खण्डन नहीं है। अतिरिक्त साक्ष्य के अवसर का लाभ नहीं लिया गया है। दस्तावेज के आशय को पढ़ा जायेगा। विक्रय पत्र में ‘‘मैं रहन नहीं कर रहा हूं’’ उल्लेखित है, जिससे प्रथम दृष्टि में ही बोगस दस्तावेज होने प्रतीत हो रहा है। खसरा पांचसाला प्रस्तुत नहीं किया गया है, पटवारी को साक्ष्य के लिये आहूत नहीं किया। कब्जा का कोई साक्ष्य नहीं है।
11.. उत्तरवादी के तर्क के जवाब में अपीलार्थी द्वारा तर्क किया गया है कि प्र.पी.-01 के विक्रय पत्र के समय मां जीवित थी ऐसा कोई अभिवचन नहीं है। श्रीमती अंजनी, चैनसिंह की पत्नि है। मां जीवित नहीं है। वादी को अपने पैरों पर स्वयंं खड़े होना होता है। 500/-रूपये (पांच सौ रूपये) वापस करने वाली बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता। किसने लौटाया आदि के संबंध में भी कोई अभिवचन नहीं है। वर्ष 1972 में बहन की शादी हुई, के संबंध में कोई खण्डन नहीं किया गया है। यदि जीवित थी तो मां को साक्षी के रूप में प्रस्तुत करना था।
12.. दावा दिनांक 26/04/2007 को संस्थित किया गया था। पूर्व में दिनांक 13/01/2010 को व्यवहार न्यायाधीश वर्ग-2 पाटन, जिला-’दुर्ग के द्वारा निर्णय एवं डिक्री पारित की गयी थी, जिसके अनुसार वादी के दावा को समयावधि से बाधित मानते हुए अस्वीकार कर निरस्त किया गया था, जिसके विरूद्ध व्यवहार अपील
क्र-44अ/11, दिनांक 10/02/2010 को संस्थित किया गया था। उक्त अपील में व्य. वाद क्र.-69अ/2008 में पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांक 13/01/2010 को अपास्त किया जाकर प्रकरण विद्वान विचारण न्यायालय को इस निर्देश के साथ रिमांड किया गया था कि प्रतिवादी क्र.-08 के जवाबदावा के स्वीकृत अभिवचनों के आधार पर न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए विचार कर यदि पक्षकार साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहते हैं, तो उन्हें इस संबंध में साक्ष्य प्रस्तुत करने हेतु सीमित रखते हुए साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान कर प्रकरण का विधिवत् निराकरण करें। प्रकरण में प्रतिवादी क्र.-08 के द्वारा वादी के अभिवचनों को स्वीकार किया गया है। विक्रय पत्र अवास्तविक था, परंंतु इस संबंध में रिमांड आदेश के बावजूद विचारण न्यायालय के समक्ष कोई
साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया है। प्रतिवादी क्र.-08 ने जो स्वीकारोक्ति की है, वह अन्य प्रतिवादीगण के विपरीत है। अतः साक्ष्य के अभाव में प्रतिवादी क्र.-08 के द्वारा किये गये स्वीकृत अभिवचन अन्य प्रतिवादीगण के विरूद्ध साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है। ऐसा भी नहीं था कि प्रतिवादी क्र.-08 को साक्ष्य का अवसर प्रदान नहीं हुआ है। वह उक्त अवसर का लाभ नहीं लिया है। अतः विद्वान विचारण न्यायालय ने साक्ष्य के अभाव में प्रतिवादी क्र.-08 के स्वीकारोक्ति के आधार पर ही निर्णय व डिक्री पारित किया गया है, वह निःसंदह ही विधि साक्ष्य एवं तथ्य के प्रतिकूल है।
13.. उत्तरवादी क्र.-01 की ओर से निम्नलिखित माननीय न्यायदृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं- Kusum S. Verma and others Vs. Pritam Singh Gulati and others 1998(1)
MPLJ में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- "A void sale is non est and can be
ignored at any stage."
(2) Heirs of Late Jatashanker Fulchand Mehta and others Vs. Heirs of Late
Mavji Trikam and another AIR 1969 Gujarat 169 e sa ;g vfHkfu/kkZfjr fd;k
x;k gS fd&^^Rules of construction of documents. Possessory mortgage and
rent note of same date Question whether formed one transaction. Oral
evidence admissible."
(3) Pannial Vs. Rajinder Singh 1994 (1) MPLJ 62 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘‘पिता नैसर्गिक संरक्षक है। माता को संरक्षक केवल तब माना जा सकता है, जब पिता की उत्साहपूर्ण अभिरूचि नहीं हो और तब अप्राप्तवय माता की एकमात्र अभिरक्षा में है। माता द्वारा अप्राप्तवय की संपत्ति का अन्य संक्रामण, पिता द्वारा भी अनुप्रमाणित। अप्राप्तवय का हित दर्शाया नहीं गया। नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अन्य संक्रामण नहीं किए जाने से उपबंध आकर्षित नहीं होते। अन्य संक्रामण न केवल शून्यकरणीय है, अपितु शून्य है।’’
(4) Ramkrishna Maniram Lende and others Vs. Vithal Rao alias Baboo and
others. 1973 MPLJ e sa ;g vfHkfu/kkZfjr fd;k x;k gS fd&^^Family holding
sufficient agricultur at lands to form nucleus and members having no other
source of income. Land purchased for Rs. 1000/- out of family funds. These
is presumption that land purchased two year later for Rs. 500 was out of
family funds."
(5) Mandas Vs. Manabai 1972 MPLJ e sa ;g vfHkfu/kkZfjr fd;k x;k gS fd&^^Suit
for possession on the basis of sale deed. Defendant can plead and prove that
the document was not intended to convey title but related to a loan. Oral
evidence to prove this is admissible. Three acres of land sold only for Rs. 400 Vendee's name not mutated in Revenue Records. No report to police of
alleged obstruction to possession. Defendant an old woman of 60 years. Sale
deed held to be fictitious. Suit for possession dismissed. "
14.. उत्तरवादी क्र.-01 की ओर से संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘‘संपत्ति में का ऐसा हित, जो उपयोग में स्वयंं स्वामी तक ही निर्वन्धित है, उसके द्वारा अंतरित नहीं किया जा सकता।
15.. हिन्दूू अप्राप्तवया और संरक्षकता अधिनमय, 1956 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- ''The natural guardian shall not, without the previous permission of
court."
16.. हिन्दूू अप्राप्तवय और संरक्षकता अधिनमय, 1956 के ''Section 6 Natural guardins of
a Hindu minor में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-‘‘in the case of a boy or an
uninarried girl the father, and after him, the mother, Provided that the
custody of a minor who has not completed the age of five years shall
ordinarily be with the mothers."
17..Section 6 in The Hindu Minority and Guardianship Act, 1956
Natural guardians of a Hindu minor.—The natural guardian of a Hindu
minor, in respect of the minor’s person as well as in respect of the
minor’s property (excluding his or her undivided interest in joint family
property), are -
(a) in the case of a boy or an unmarried girl—the father, and after him,
the mother: provided that the custody of a minor who has not
completed the age of five years shall ordinarily be with the mother;
(b) in case of an illegitimate boy or an illegitimate unmarried girl—the
mother, and after her, the father;
(c) in the case of a married girl—the husband: Provided that no
person shall be entitled to act as the natural guardian of a minor
under the provisions of this section—
(a) if he has ceased to be a Hindu, or
(b) if he has completely and finally renounced the world by
becoming a hermit (vanaprastha) or an ascetic (yati or sanyasi).
Explanation.—In this section, the expression “father” and “mother” do
not include a step- father and a step-mother.
18-- Any transfer of the minor's interest without the permission of the
Court would clearly be against the provisions of the Hindu
Minority and Guardianship Act, unless such alienation had been
first permitted by the Court. No such permission was sought or
obtained.
19-- Section 8 of the Hindu Minority and Guardianship Act, 1956 deals
with the powers of natural guardian of a Hindu minor and the said
section mandates that the natural guardian has power to do all acts
which are necessary or reasonable and proper for the benefit of the
minor or for the realisation, protection or benefit of the minor’s
estate, etc. The provision reads as follows:
“ Powers of natural guardian.- (1) The natural guardian of a Hindu
minor has power, subject to the provisions of this section, to do all
acts which are necessary or reasonable and proper for the benefit
of the minor or for the realization, protection or benefit of the
minor's estate; but the guardian can in no case bind the minor by a
personal covenant.
(2) The natural guardian shall not, without the previous permission
of the court,-
(a) mortgage or charge, or transfer by sale, gift, exchange or
otherwise any part of the immovable property of the minor; or
(b) lease any part of such property for a term exceeding five
years or for a term extending more than one year beyond the date on which
the minor will attain majority. (3) Any disposal of immovable
property by a natural guardian, in contravention of sub-section (1)
or sub-section (2), is voidable at the instance of the minor or any
person claiming under him.
(4) No court shall grant permission to the natural guardian to do
any of the acts mentioned in sub-section (2) except in case of necessity or
for an evident advantage to the minor.
As per clause (a) of sub-section (2) of Section 8 no
immovable property of the minor can be mortgaged or charged, or
transferred by sale, gift, exchange or otherwise without the previous
permission of the Court. Under sub-section (3) of Section 8 disposal of
such an immovable property by a natural guardian, in contravention of
sub-section (1) or sub-section (2) of Section 8, is voidable at the
instance of the minor or any person claiming under him.
20-- Delhi High Court in Amarjit Kaur And Ors. vs Kishan Chand on 14
November, 1979 Equivalent citations: 17 (1980) DLT 225, 1980 RLR
419(Author: A Rohatgi)(Bench: A B Rohatgi ) held that
In
general, the statement made by one defendant cannot be read in
evidence either for or against his co-defendant, excepting against
himself; the reason being, that, as there is no issue between the
defendants, no opportunity can have been afforded for cross
examination and moreover, if it were allowed, the plaintiff might make
one of his friends a defendant, and thus gain a most unfair advantage,
(12) The admission, assuming it to be an admission of Budh Singh, is
no evidence against Bhagwan Singh. No defendant can, by admission
or consent, bind the other defendant. The admission of one defendant
will not be relevant against the co-defendant, because it would be
unjust to bind a co-defendant by the admission of another whom he has
had no opportunity to answer or cross-examin. The general rule is that
an admission against party making it, and not a aginst any other party
(Kanwar Lal Gupta v. Amar Nath Chaw/a and other, I.L.R. (1972)1
Delhi 717). An admission or even a confession of judgment by one of
several defendants is no evidence against another defendant. (See Amritolall Base & others v. Rajoneekant
Mitter and another, 2 Ia 1 13). The admission of subletting by Budh
Singh is therefore no evidence against the tenant Bhagwan Singh.
21.. In terms of Section 58 of the Indian Evidence Act, 1872, a thing
admitted need not be proved. [Shreedhar Govind Kamerkar v.
Yesahwant Govind Kamerkar & Anr. 2006 (14) SCALE 174] but A
statement of a witness befor it can be received in evidence must have
been subjected to crossexamination by the party against whom it is
sought to be used. This is the acid test. In this present case also
admission of defendant is no evident against other defendant.
22.. Calcutta High Court in Ambar Ali And Ors. vs Lutfe Ali And Ors. on
23 April, 1917 Equivalent citations: 41 Ind Cas 116
(Author: A Mookerjee)(Bench: A Mookerjee, Beachcroft) held that
The Subordinate Judge has used the recital as valuable evidence, not
only against the fourth and fifth defendants who executed the
conveyance; but also against the other defendants who were not
parties to that transaction. There can be no room for controversy that
the admission is good evidence against the makers of the conveyance,
but the question arises whether it is admissible against the other
defendants. These defendants, it will be observed, are [jointly
interested in the land now in dispute, along with the fourth and fifth,
defendants; [in fact, they claim under a common lease from. the
landlord and have, on basis thereof, taken a common defence to defeat
the suit of the plaintiffs. But these defendants were not joint owners of
the property covered by the conveyance of 1894, and were strangers to
that transaction. They consequently press the view that an admission
made by the owners of that property cannot be received in evidence
against them merely because since the date of the alleged admission
they have jointly acquired the property now in suit. In our opinion, this
contention is well founded, as Section 18 of the Indian Evidence Act is
of no assistance to the plaintiffs. The principle which regulates the
reception in evidence of an admission by one defendant as against
another defendant, was formulated in the oases of Kowsulliah Sundari Dasi v.
Mukta Sundari Dasi 11 C. 588 : 10 Ind. Jun 66 : 5 Ind. Dec. (N. S.)
1151.; Chalho Singh v. Jharo Singh 18 Ind. Cas. 61 : 39 C. 995. and
Meajan Matbor v. Alimuddin Mea 34 Ind. Cas. 571 : 44 C. 130 : 20 C.
W. N. 1217 : 25 C. L. J. 42. The principle is that when several persons
are jointly interested in the subject-matter of the suit, an admission of
any one of these persons is receivable not only against himself but also
against the others whether they be all jointly suing or sued, provided
that the admission relates to the subject-matter in dispute and be made
by the declarant in his character of a person jointly interested with the
party- against; whom the evidence is tendered. The requirement of the
identity in legal interest between the joint owners is of fundamental
importance. Blenkinsopp v. Blenkinsopp (1846) 10 Beav. 143 : 2
Phillips 607 : 16 L. J. Ch. 88 : 11 Jun 721 : 50 E. R. 537 : 78 R. R. 216.
On this principle, the position has been maintained that the joint
ownership must have existed at the time the statement was made. Thus,
in Blakeney v.; Fergusson 14 Ark. 641., it was ruled that the
admissions of one person cannot be admitted in evidence against
another on the ground of a joint interest in the subject, unless the
interest is a subsisting one at the time of the admission, and where the
interest is derivative, it must have been acquired after the admission
was made. To the same effect is the Rule enunciated in Kilburn v.
Ritchie 2 California 145 : 56 Am. Dec. 326 that the declaration of one
of two joint owners is admissible against the other, if made at a time
after the joint interest came into existence; if made before they became
joint owners, the declaration is not admissible. The distinction is based
upon obvious good sense. The admission of one co-plaintiff or codefendant
is not receivable against another, merely by virtue of his
position as a co-party in the litigation; if the Rule were otherwise, it
would in practice permit a litigant to discredit an opponent's claim
merely by joining any person as the opponent's co party, and then
employing that person's statements as admissions. Consequently, it is
not by virtue of the person's relation to the litigation that the admission
of one can be used against the other; it must be, because of some
privity of title or of J obligation [see the observations of Erskine, L. C,
in Morse v. Royal (1806) 12 Ves. (Jun.) 355 at p. 361 : 33 E. R. 134 : 8
R. R. 338. and Ellenborough, O. J., in R. v. Hardwick (1809) 11 East 578 at p. 585 : 103 E. R. 1129. The vital point for consideration
accordingly is whether there is such privity of obligation or title
between two persons as to justify the use of the admission of one
against the other; and plainly this must be determined by reference to
the relation between the parties at the time the admission is made. As a
matter of probative value, the admission of a person (such as one joint
owner) having precisely the same interest at stake as another (his coowner),
will, in general, be likely to be equally worthy of
[consideration; there being an identity of legal liability, the two persons
may be deemed one so far as affects the propriety of I discrediting one
by the statement of the other. This reason., however, ceases to be
applicable where, as in the case before us, the admission was made, at
a time when the parties had no community of interest. The inference is
thus irresistible that the recital in the conveyance of 1894, though
admissible against the fourth and fifth defendants, is not admissible as
admissions against the other defendants under Section 18 of the
Indian Evidence Act.
23.. प्रकरण में पंजीकृत विक्रय पत्र निष्पादित हुआ है। पंजीकृत विक्रय पत्र प्रथम दृष्टया विक्रय पत्र है। किसी भी प्रकार से रहन या कर्ज के एवज में लिखत दस्तावेज नहीं है। अतः इस संबंध में विद्वान विचारण न्यायालय के द्वारा दस्तावेज के विपरीत जाकर के उक्त दस्तावेज को अवास्तविक दस्तावेज होने का जो निष्कर्ष दिया है, वह त्रुटिपूर्ण है और विधिक भी नहीं है।
24.. यह सही है कि ैSection 6 of The Hindu Minority and Guardianship Act,
1956 के तहत् अवयस्क की संपत्ति को उसके नैसर्गिक गार्जियन पिता, उसके बाद माता के द्वारा ही व्ययन किया जा सकता है। प्रकरण में पिता की मृत्यु होना स्वीकृत है, परंंतु विक्रय पत्र निष्पादन दिनांक 04/05/1972 को वादी की माता जीवित थी, ऐसा कोई स्पष्ट अभिवचन नहीं है। विक्रय पत्र का निष्पादन भाईयो के द्वारा किया गया है। विधि के अनुसार वेSection 6 in The Hindu
Minority and Guardianship Act, 1956 के तहत् विक्रय करने के लिये सक्षम नहीं हैं। उन्हें विक्रय के पूर्व जिला न्यायाधीश से विक्रय करने की अनुमति प्राप्त करना था, जो कि नहीं किया गया है। अतः इस संबंध में जो विक्रय पत्र का निष्पादन हुआ है, वह प्रारंंभ से शून्य नहीं है, बल्कि शून्यकरणीय है।
25.. यह सही है कि वाद पत्र की कंडिका-08 मात्र अवास्तविक विक्रय का उल्लेख है। किस प्रकार से विक्रय पत्र अवास्तविक है, का कोई स्पेसिफिक प्लीडिंग नहीं है। स्वयंं वादी/उत्तरवादी क्रमांक-01 ने अपने प्रतिपरीक्षण की कंडिका-09 की चौथी लाईन में यह स्वीकार किया है कि वर्ष 1972 में जो विवादित भूमि बेची गयी, वह परिवार के हित के लिये बेची गयी थी।
26.. श्रीमती अंजनी बाई प्रतिवादी साक्षी क्र.-01 ने प्रतिपरीक्षण की कंडिका-13 में बतायी है कि पति के बहन मंजू की शादी के समय पैसे की जरूरत थी, तब वे जमीन बिक्री किये थे। वादी/उत्तरवादी ने कहीं कोई प्लीडिंग नहीं की है कि कब्जा है। प्रतिवादी साक्षी क्र.-02 श्रीमती दीपा चौहान ने प्रतिपरीक्षण की कंडिका-05 में बतायी है कि वह वाद जमीन को देखी है, जो फूलसिंह और चैनसिंह के कब्जे में नहीं थी। वह जमीन खाली पड़ी थी। वर्ष 1996 में पिता ने खरीदा था।
27.. ैSection 91 and 92 of the Evidence Act completely debar receipt of any
such evidence. Under section 91 of the Evidence Act, when the terms
of a contract have been reduced in the form of a document no evidence
can be given in proof of terms of such a contract except the document
itself Under section 92 of the Evidence Act, if the terms of such a
contract have been reduced to writing and have been .proved, no
evidence of any oral agreement can be admitted as between the parties
to such document for the purpose of contradicting, varying adding or
substracting from its terms. The exceptions to this genearal rule are provided in provisions 1 to 6 to Section 92 of the Evidence Act,
Provision 1, 3 and 6 read as under :- "PROVISO(1) Any fact may be
proved which would invalidate any document or which would entitle
any person to any decree of order relating thereto, such as fraud
intimidation, illegality, want of due execution, want of capacity in any
contracting party, want or failure of consideration, or mistake in fact
or law. Proviso (2) ......................................... ..............................
Proviso (3) The existence of any separate oral agreement, constituting
a condition precedent to the attaching of any obligation under any such
contract, grant or disposition of property, may be proved. Proviso
(4) ....................................... ................................. Proviso
(5).............................................................................. Proviso (6) Any
fact may be proved which shows in what manner the language of a
document is relate to existing facts".
There is, in fact, no such pleading which may attract applicability
of Section 92 of the Evidence Act.
28.. This question shall have to be decided regard being had to the
provisions contained in Order VI, rule 4 of the Civil Procedure Code,
which can be reproduced as under :
"Order VI, rule 4 : In all cases in which the party pleading
relies on any misrepresentation, fraud, breach of trust, wilful default, or
undue influence, and in all other cases in which particulars may be
necessary beyond such as are exemplified in the forms aforesaid,
particulars (with dates and items if necessary) shall be stated in the
pleading.
A bare perusal of the above said text of the rule would go to
show that in all cases in which the party relies on fraud, the particulars
thereof should be provided in the pleading. When the pleadings in the
petition are examined in view of the abovesaid statutory provision, it
shall have to be said that the requirements of this rule have not been
complied with. At more than one place, the petitioners do say in the
petition that there has been a fraud upon the statute, upon the company
and upon the shareholders. But, this repeated recital regarding the
existence of the fraud is devoid of any particulars whatsoever. It should be appreciated that the law of pleadings requires that an
allegation of fraud is to be made specifically and that the particulars
thereof are to be furnished and later on, with a view to succeed on the
basis of the plea of fraud, the fraud as alleged requires to be
established. Learned counsel, Mr. Devang Nanavati, in this respect,
draws my attention to a classic decision on this point rendered by the
Privy Council in the year 1915 in Bal Gangadhar Tilak v. Shrinivas
Pandit, AIR 1915 PC 7. The Privy Council, while dealing with the
provisions contained in Order VI, rule 4 of the Civil Procedure Code,
has said thus :
"Under the contract law of India, as well as by ordinary
principles, coercion, undue influence, fraud, and misrepresentation are
all separate and separable categories in law. They may overlap or may
be combined. But in pleadings, general allegations, however strong
may be the words in which they are stated, are insufficient even to
amount to an averment of fraud of which any court ought to take
notice."
The truth of the matter is that the court will invalidate an
order only if the right remedy is sought by the right person in the right
proceedings and circumstances. The order may be hypothetically a
nullity, but the court may refuse to quash it because of the plaintiff's
lack of standing, because he does not deserve a discretionary remedy,
because he has waived his rights, or for some other legal reason. In any
such case the 'void' order remains effective and is, in reality, valid."
29.. विद्वान विचारण न्यायालय ने निर्णय की कंडिका-18 में वाद पत्र दिनांक 31/12/1996 प्र.पी.-01 को विक्रय पत्र माना है, परंंतु उसमें वर्णित ‘‘संपत्ति को रहन नहीं बिक्री किया हूं’’ के आधार पर उसे रहन के परिणामस्वरूप स्वयंं निष्पादित किये जाने का जो निष्कर्ष दिया है, उस संबंध में कोई अभिवचन नहीं है। अभिवचन से बाहर जाकर निष्कर्ष दिया गया है। इसी प्रकार से ‘‘वर्ष 1996 को जब विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 निष्पादित किया गया, तब विशिष्ट रूप से उक्त तथ्य का उल्लेख किया गया है। विक्रय पत्र वर्ष 1972 में भूमि को रहन रखने संबंधी संव्यवहार के ही परिणामस्वरूप भूमि वापस किये जाने के परिपेक्ष्य में निष्पादित किये जाने’’ का जो निष्कर्ष दिया गया है, वह भी अभिवचन के बाहर का निष्कर्ष है। प्रकरण में कर्ज की सुरक्षा या रहन के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं है।
30.. विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने अपने आदेश पत्र दिनांक 12/03/2013 में यह निर्णित करने के बाद कि उत्तरवादी क्र.-08 का शपथ पूर्वक कथन दिनांक 06/03/2013 प्रतिपरीक्षण के अभाव में साक्ष्य के रूप में ग्राह्य नहीं रह जाता है, के बाद अधीनस्थ न्यायालय ने उत्तरवादी क्र.-08 के अग्राह्य शपथ पत्र में किये गये शपथ पूर्वक कथन का अपने निर्णय की कंडिका-17 में विश्लेषण करते हुए उत्तरवादी क्र.-01 के दावा में आज्ञप्ति पारित करने में कानूूनन गलती किया है।
31.. विद्वान अधीनस्थ न्यायालय भिलाई-3 ने अपने निर्णय की कंडिका-18 में यह राय कायम करने में कान ूनन गलती किया है कि प्र.पी.-01 के विक्रय पत्र में संपत्ति को रहन नहीं बिक्री किया हूं, का उल्लेख इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1972 में जो विक्रय पत्र निष्पादित किया गया था और बाद में सन् 1996 में जब उक्त विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 निष्पादित कराया गया था तब विशिष्ट रूप से उक्त तथ्य का उल्लेख किया गया है, ताकि पूर्व विक्रय पत्र के रहन रखने के प्रमाण स्वरूप निष्पादित किये जाने संबंधी किसी तरह का कोई प्रतिकूल प्रभाव वर्ष 1996 के उक्त विक्रय पर न पड़े ऐसे में भी वास्तव में उक्त विक्रय पत्र. वर्ष 1972 में भूमि को रहन रखने संबंधी संव्यवहार के ही परिणाम स्वरूप भूमि वापस किये जाने के परिपेक्ष्य में निष्पादित किये जाने की स्थिति प्रकट होती है, जबकि उत्तरवादी क्र.-01 के वाद पत्र में विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 रहन होने के संबंध में कोई अभिवचन नहीं किया गया है इस प्रकार अधीनस्थ न्यायालय ने अपने मन से अभिवचन से बाहर जाकर वादी/उत्तरवादी क्र.-01 के पक्ष में नया प्रकरण बना दिया है।
32.. वाद समय सीमा से बाधित नहीं है, के संबंध में जो निष्कर्ष अपीलीय न्यायालय द्वारा दिया गया है उसे कोई चुनौती नहीं दी गयी है। दावा समयावधि के भीतर प्रस्तुत है। अतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वादी संपूर्ण विक्रय पत्र दिनांक 04/12/72 को शून्यकरणीय घोषित करा सकता है? पंजीकृत विक्रय पत्र के द्वारा जो वाद भूमि विक्रय की गयी है, वह वादी एवं उसके दोनो भाईयो के नाम से संयुक्त हक व अधिकार की भूमि थी। वादी का विक्रय पत्र दिनांक को उसमें मात्र 1/3 का हिस्सा था। अतः ऐसी स्थिति में वह अपने हिस्से को ही शून्यकरणीय करा सकता है। अतः विद्वान विचारण न्यायालय ने अपने निर्णय की कंडिका-21 में जो विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 और दिनांक 31/12/1996 को शून्य घोषित करने और वादी पर बंधनकारी नहीं होने का जो निष्कर्ष दिया है, वह विधि के अनुरूप न होकर हस्तक्षेप किये जाने योग्य है। अतः अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया जाता है।
33.. विद्वान विचारण न्यायालय के द्वारा जो विक्रय पत्र दिनांक 04/05/72 और 31/12/1996 को शून्य घोषित किया गया है, उसे अपास्त करते हुए उसके स्थान पर वादग्रस्त भूमि (ख.नं. -304/1 का टुकड़ा, रकबा 0.35 डि, वर्तमान ख.नं. -304/9) पर 1/3 भाग पर ही वादी का स्वत्व रहेगा और उक्त विक्रय पत्र अनुसार वादभूमि का मात्र 1/3 भाग पर ही वादी/उत्तरवादी क्र.-01 स्थायी निषेधाज्ञा की सहायता भी प्राप्त करने का अधिकारी होगा। अतः अपील आंशिक स्वीकार कर निम्नलिखित आज्ञप्ति पारित की जाती है-
(1) विक्रय पत्र दिनांक 31/12/1996 तथा विक्रय पत्र दिनांक 04/05/1972 में उल्लेखित भूमि ख.नं. -304/1 का टुकड़ा, रकबा 0.35 डि, वर्तमान ख.नं. -304/9 पर 1/3 अंश का स्वामी वादी/उत्तरवादी क्र.-01 है
(2) वादभूमि के 1/3 अंश के अनुसार ही विक्रय पत्र को शून्य घोषित किया जाता है
(3) वादभूमि के 1/3 भाग पर ही प्रतिवादीगण/अपीलार्थीगण को दखलअंदाजी/स्वरूप परिवर्तन करने से स्थायी रूप से निषेधित किया जाता है।
(4) उभयपक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयंं वहन करेंगे।
(5) अभिभाषक शुल्क प्रमाणित होने पर निम्नानुसार जो भी कम हो, देय होगा।
(6) निर्णय की प्रतिलिपि अधीनस्थ न्यायालय को सूचनार्थ भेजी जावे।
अपील प्रकरण समाप्त। नस्तीबद्ध कर अभिलेखागार में जमा किया जावे।
तद्नुसार निर्णय व आज्ञप्ति बनायी जावे।
मेरे निर्देश पर टंकित।
दुर्ग, दिनांक - 02/05/2016
(कु.संघपुष्पा भतपहरी)
षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश, दुर्ग
जिला-दुर्ग (छ.ग.)
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