न्यायालय षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश, दुर्ग, जिला दुर्ग(छ.ग.)
(पीठासीन अधिकारी- कु.संघपुष्पा भतपहरी)
व्यवहार वाद क्र.-41ए/2015
संस्थापित दिनांक-13/04/2015
गोपाल तुलसीदास राठी आ. श्री तुलसीदास ताराचंंद राठी,
उम्र लगभग-51 वर्ष, पेशा - व्यवसाय,
पता-नीलगिरी, कैम्प रोड,
अमरावती (महाराष्ट्र) .................................वादी
01.. डॉ. श्रीमती अनुपमा अश्विन देशमुख,
पति श्री अश्विन देशमुख,
उम्र लगभग-48 वर्ष
पता-सुधा देशमुख अस्पताल के पास,
केम्प रोड, अमरावती (महाराष्ट) पिन-444602
02.. डॉ. अजय अग्रवाल पिता स्व. श्री कपिल नारायण,
उम्र लगभग-52 वर्ष,
पता - डॉ अग्रवाल भवन, मेडिकल चौक,
नागपुर (महाराष्ट्र)
03.. छ.ग. शासन,
द्वारा-जिलाधीश,
जिला कार्यालय दुर्ग (छ.ग.) ...............प्रतिवादीगण
--------------------------------------------------
वादी द्वारा श्री डी.एस.राजपूत अधिवक्ता।
प्रतिवादी क्र.-01 द्वारा श्री सोहन लाल चन्द्रपक्षी अधिवक्ता।
प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा श्री हरे कृष्ण तिवारी अधिवक्ता।
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(आज दिनांक .............24/12/2016..............को घोषित)
01.. वादीगण ने यह दावा संविदा के विशिष्ट पालन एवं स्थायी निषेधाज्ञा हेतु
प्रतिवादीगण के विरूद्ध प्रस्तुत किया है।
02.. प्रकरण में यह स्वीकृत तथ्य है कि- प्रतिवादी क्र.-01 एवं प्रतिवादी क्र.-02
भाई-बहन हैं। पूर्व में प्रतिवादी क्र.-02, प्रतिवादी क्र.-01 का पॉवर ऑफ एटार्नी
रही है। श्रीमती सुधा अग्रवाल प्रतिवादी क्र.-01 एवं 02 की माता थी जिनका निधन
दिनांक 11/05/2001 को हुआ। मात्र प्रतिवादी क्र.-02 की ओर से यह स्वीकृत
तथ्य है कि ग्राम-करहीडीह, तहसील व जिला-दुर्ग में स्थित कृषिभूमि को माता
श्रीमती सुधा अग्रवाल ने अपने जीवन काल में वादी के पास 5,46,610/-रूपये
(पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) में विक्रय करने का सौदा की थी
और सौदा पेटे संपूर्ण प्रतिफल की रकम डी.डी. द्वारा वादी द्वारा प्रतिवादी क्र.
-01 एवं 02 की माता को दिया था तथा प्रतिवादी क्र.-01 और 02 की माता ने
वादभूमि का कब्जा वादी को सौंपा दी थी। श्रीमती सुधा अग्रवाल द्वारा प्रतिवादी क्र.
-02 को अपनी एटार्नी नियुक्त किया गया था। प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा पत्र दिनांक
20/01/2001 एवं 15/10/2003 को वादी को प्रेषित किया गया था। प्रतिवादी
क्र.-01 द्वारा वादी को अवगता कराया गया था कि प्रतिवादी क्र.-01 ने प्रतिवादी
क्र.-02 को अपना एटार्नी नियुक्त की थी, उसे उनके द्वारा निरस्त कर दिया गया
है, इसलिये वादी वाद भूमि के विक्रय पत्र का निष्पादन एवं पंजीयन के संबंध में
प्रतिवादी क्र.-01 से ही संपर्क करे।
03.. वादी का अभिवचन है कि- वादी ग्राम-करहीडीह, तहसील व जिला-दुर्ग में स्थित
कृषि भूमि ख.न.-127 एवं 134, रकबा-0.85 एवं 2.64 कुल, 3.49 हे. याने 8.63
एकड़ का कब्जेदार है। प्रतिवादी क्र.-01 उपरोक्त वर्णित भूमि (जिसे आगे विवादित
भूमि कहा गया है) की भूमि स्वामी वर्तमान में राजस्व अभिलेखो के अनुसार है।
प्रतिवादी क्र.-02, प्रतिवादी क्र.-01 का भाई है तथा उसका मुख्तयार रहा है।
प्रतिवादी क्र.-03 छ.ग. शासन है जो कृषि भूमि के संबंधित वाद होने के कारण
औपचारिक पक्षकार है तथा उनके विरूद्ध किसी प्रकार अनुतोष की प्रार्थना नहीं की
गयी है।
04.. वादी का आगे अभिवचन है कि ग्राम-करहीडीह, तहसील व जिला-दुर्ग में स्थित
कृषि भूमि ख.ने.-127 एवं 134, रकबा-0.85 एवं 2.64 कुल 3.49 हे. श्रीमती सुधा
अग्रवाल जौजे कपिल नारायण अग्रवाल के स्वामित्व की है। उक्त भूमि में से ख.ने.
-127 एवं 134 की संपूर्ण भूमि को बेचने का पक्का सौदा वादी से अमरावती में ही
होना तय हुआ था तथा कुल कीमत 5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस
हजार छः सौ दस रूपये) में तय की गयी थी की कीमत के लिये वादी ने भूमि
स्वामी जो प्रतिवादी क्र.-01 व 02 की माता थी, के नाम से 2 डी.डी. बनाकर राशि
अदा की गयी थी। एक डी.डी. क्रमांक-080699 कीमती 4,15,800/-रूपये (चार
लाख पंद्रह हजार आठ सौ रूपये) एवं दूूसरा डी.डी. क्रमांक-080700/-रूपये
कीमती 1,30,810/-रूपये (एक लाख तीस हजार आठ सौ दस रूपये) कुल
5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) नागपुर ब्रांच से
भुगतान के लिये दिनांक 30/12/2000 को ही बनाकर दिया गया। जिसे भूमि
स्वामी श्रीमती सुधा अग्रवाल ने स्वीकार किया।
05.. वादी का यह भी अभिवचन है कि दिनांक 01/01/2001 को वादी एवं भूमिस्वामी
सुधा अग्रवाल व प्रतिवादी क्र.-02 दुर्ग आये व हल्का पटवारी से दस्तावेज अभिलेख
की नकल प्राप्त की व मौके पर जाकर भूमि का कब्जा वादी को प्रदान किया व
मूल ऋण पुस्तिका क्र.-840487 वादी को दी गयी। वादी का प्रतिवादी क्र.-01 जो
श्रीमती सुधा अग्रवाल की पुत्री है, से पड़ोसी होने के कारण अच्छी पहचान व मधुर
संबंध है। उस समय श्रीमती सुधा अग्रवाल अपनी पुत्री प्रतिवादी क्र.-01 के घर
आयी हुई थी वही पर सौदे की बात पक्की हुई थी तथा विश्वास के कारण सौदे
का कोई इकरारनामा निष्पादित नहीं किया था। क्योंकि वैसे भी वादी ने सौदे की
संपूर्ण रकम देकर भूमि का कब्जा प्राप्त कर लिया था। इसलिये वादभूमि के
पंजीयन की कार्यवाही पूर्ण करने का आश्वासन श्रीमती सुधा अग्रवाल द्वारा दिया
गया था। इस कारण संविदा के पालन हेतु कोई निर्धारित अवधि लाग ू नहीं थी।
इस बीच श्रीमती सुधा अग्रवाल का स्वास्थ्य खराब हो गया। इस कारण विक्रय पत्र
का निष्पादन नहीं हो पाया। चूंकि विक्रय पत्र के लिये कोई सीमा निर्धारित नहीं की
गयी थी, इसलिये वादी एवं प्रतिवादी के मध्य विक्रय पत्र को लेकर कोई विवाद की
स्थिति नहीं थी।
06.. वादी का आगे अभिवचन है कि -श्रीमती सुधा अग्रवाल ने अपने एकमात्र पुत्र
प्रतिवादी क्र.-02 को अपना मुख्तयार नियुक्त कर वादभूमि के लिये मुख्तयारनामा
निष्पादित कर दिया था। प्रतिवादी क्र.-02 से वादभूमि के पंजीयन हेतु कई बार
निवेदन वादी द्वारा किया गया, परंतु प्रतिवादी क्र.-02 के व्यस्त होने के कारण व
दुर्ग आने के लिये समय निकालने की समस्या बताकर विक्रय पत्र का निष्पादन
टलता रहा तथा कई बार वादी द्वारा जोर भी दिया गया, परंतु प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा अपनी व्यस्तता बताकर पंजीयन की कार्यवाही नहीं हो पायी और प्रतिवादी क्र.
-02 द्वारा यह कहा जाता रहा कि कब्जा आपको दे दिया गया आप उसका
उपयोग उपभोग कर रहे हैं तो ऐसी क्या जल्दी है। जब भी समय हागा दुर्ग जाकर
विक्रय पत्र का निष्पादन कर दूंगा ऐसा आश्वासन व वचन प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा
दिया जाता रहा और प्रतिवादी क्र.-02 जिम्मेदार व्यक्ति होने के कारण उस पर
वादी को विश्वास रहा इसलिये संविदा के पालन हेतु वादी ने कोई कार्यवाही नहीं
की।
07.. वादी का आगे अभिवचन है कि भूमि स्वामी श्रीमती सुधा अग्रवाल का आकस्मिक
निधन दिनांक 11/05/2001 को हो गया है। जिसकी जानकारी प्रतिवादी क्र.-02
द्वारा वादी को दी गयी थी। मृत्यु कार्यक्रम के बाद प्रतिवादी क्र.-01 ने जिसके
सामने वादभूमि के विक्रय की बात पक्की हुई थी ने भी वही आश्वासन दिया कि
तुम्हारी जमीन की रजिस्ट्री हम लोग जो स्व. श्रीमती सुधा अग्रवाल के वारिस है, द्वारा कर दी जावेगी। वादग्रस्त भूमि को देखरेख तथा साग सब्जी फसल आदि के
लिये अपने रिश्तेदार रमेश महेश्वरी को नियुक्त किया हुआ है। जिसने वादी को यह
जानकारी दी है कि माह अप्रेल 2015 से कुछ लोग वादभूमि पर आकर भूमि देखने
तथा विक्रय करने की बातें कर रहे हैं। इससे भी यह स्पष्ट है कि प्रतिवादी क्र.-01 संविदा का पालन नहीं करना चाहती और वादी के कब्जे में दखल देकर एवं
वादभूमि को बढी हुई कीमत पर लालच में आकर बेचना चाहती है।
08.. वादी का आगे अभिवचन है कि वादी दिनांक 10/04/2015 को दुर्ग आया है और
न्यायालय तहसीलदार दुर्ग से यह जानकारी प्राप्त हुई है कि प्रतिवादी क्र.-01
वादभूमि से संबंधित किसान किताब प्राप्त करने हेतु न्यायालय में कार्यवाही की है
इस तथ्य की पुष्टि हल्का पटवारी द्वारा भी वादी को दी गयी है ‘‘कि तहसीलदार
दुर्ग के न्यायालय से प्रतिवेदन मंगवाया गया है’’ इससे स्पष्ट है कि वादी द्वारा क्रय
की गयी भूमि को जिसका प्रतिफल वादी ने मूल भूमिस्वामी श्रीमती सुधा अग्रवाल
को अदा कर कब्जा प्राप्त किया है, को पुनः अन्य व्यक्ति के पास बढी हुई कीमत
पर प्रतिवादी क्र.-01 वादभूमि को विक्रय करना चाहती है। इसलिये प्रतिवादी क्र.
-01 व 02 के विरूद्ध स्थायी निषेधाज्ञा इस बाबत जारी की जावे कि वादी के
कब्जे की भूमि जिसका प्रतिफल वादी ने अदा कर दिया है वह वाद भूमि ख.ने.
-127 एवं 134 कुल रकबा 3.49 हे. में स्वयं या किसी अन्य के माध्यम से कोई
दखल न देवे व वादभूमि का वादी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति, संस्था, कंपनी
आदि के पक्ष में वादभूमि का विक्रय पत्र निष्पादित करने से रोक व मनाही की
जावे।
09.. वादी ने वाद कारण न्यायालय के सुनवायी क्षेत्राधिकार अंतर्गत दिनांक
02/04/2015 को प्रथम बार उत्पन्न हुआ, जब प्रतिवादी क्र.-02 ने वादभूमि के
संबंध में जारी प्रतिवादी क्र.-01 द्वारा मुख्तयारनामा रद्द करने की जानकारी दी
और विक्रय पत्र निष्पादन से मना किया तथा दिनांक 05/04/2015 को जब
प्रतिवादी क्र.-01 ने जो वर्तमान में वादभूमि की स्वामी है, ने वादभूमि के विक्रय पत्र
से इंकार करते हुए वर्तमान कीमत पर भूमि विक्रय करने का कथन किया और
इसके बाद से लगातार उत्पन्न हो रहा है। क्योंकि प्रतिवादी क्र.-01 द्वारा वादभूमि
के विक्रय को लेकर अन्य व्यक्तियों से बात कर वादी के कब्जे की भूमि पर अन्य
लोगों द्वारा जाकर विक्रय की बात कही जा रही है, से लगातार उत्पन्न होना
बताया है।
10.. वादी ने अपने दावे का मूल्यांकन संविदा अनुसार संविदा के पालन हेतु प्रतिफल
राशि 5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) पर कर
निर्धारित न्यायशुल्क 62,620/-रूपये (बासठ हजार छः सौ बीस रूपये) तथा
स्थायी निषेधाज्ञा हेतु मूल्यांकन 1,000/-रूपये (एक हजार रूपये) कर निर्धारित
शुल्क 500/-रूपये (पांच सौ रूपये) न्यायशुल्क कुल न्यायशुल्क 63,120/-रूपये
(तिरसठ हजार एक सौ बीस रूपये) चस्पा कर इस न्यायालय के क्षेत्राधिकार के
भीतर संविदा के विशिष्ट पालन प्रतिवादी क्र.-01 से कराये जाने तथा स्थायी
निषेधाज्ञा की सहायता का अनुतोष चाहा गया है।
11.. स्वीकृत तथ्यों के अतिरिक्त वादी के समस्त अभिवचनों को अस्वीकार करते हुए
प्रतिवादी क्र.-01 द्वारा जवाबदावा पेश किया गया है। प्रतिवादी क्र.-01 का
अभिवचन है कि वादी ने जानबूझकर प्रतिवादी क्र.-02 को इस प्रकरण मे पक्षकार
बनाया है, जबकि वादग्रस्त भूमि में न तो उसका कोई हक एवं अधिकार है और न
ही उसके साथ उसका कभी कोई विक्रय का सौदा हुआ है। वादी ने जानबूझकर
प्रतिवादी क्र.-02 को इस दुराशय से पक्षकार बनाया है, ताकि उससे अपने दावे के
संबंध में कथन करा सके। जब प्रतिवादी क्र.-02 भूमि का स्वामी नहीं है और न ही
उसके द्वारा किसी दस्तावेज का निष्पादन एवं पंजीयन किया जाना है। तब उसे
पक्षकार क्यों बनाया गया है। इस तरह वादी का वाद पक्षकारों के कुसंयोजन के
दोष से द ूषित है। अतः वादी का वाद सव्यय निरस्त किया जावे एवं प्रतिवादी क्र.
-01 को उसका वाद व्यय वादी से मय विशेष क्षतिपूरक के दिलाया जावे।
12.. स्वीकृत तथ्यों के अतिरिक्त वादी के समस्त अभिवचनों को अस्वीकार करते हुए
प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा जवाबदावा पेश किया गया है। प्रतिवादी क्र.-02 का
अभिवचन है कि वादी प्रतिवादी क्र.-02 के विरूद्ध कोई अनुतोष पाने का अधिकारी
नहीं है। क्योंकि वादभूमि राजस्व अभिलेख में प्रतिवादी क्र.-02 के नाम पर दर्ज
नहीं है, बल्कि वादभूमि प्रतिवादी क्र.-02 की माता स्व. श्रीमती सुधा अग्रवाल द्वारा
अपने जीवनकाल में निष्पादित वसीयतनामा के आधार पर प्रतिवादी क्र.-01 के नाम
से दर्ज है। इसलिये वर्तमान प्रकरण में प्रतिवादी क्र.-02 न तो आवश्यक पक्षकार है
और न ही उचित पक्षाकार है। अतः वादी का दावा प्रतिवादी क्र.-02 के विरूद्ध
खारिज किया जावे।
13.. प्रकरण में निम्नलिखित वाद-प्रश्नो की रचना की गयी, जिनके समक्ष मेरे द्वारा
निष्कर्ष दिया जा रहा है-
वाद-प्रश्न निष्कर्ष
01.. क्या वादभूमि ख.ने.-127 एवं 134, रकबा ‘‘प्रमाणित नहीं’’
0.85 एवं 2.64 कुल 3.49 हे. याने 8.63
एकड़ भूमि जो ग्राम करहीडीह तह. व
जिला-दुर्ग में स्थित है, को विक्रय करने
का पक्का मौखिक सौदा दिनांक
30/12/2000 को 5,46,610/- रूपये
(पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस
रूपये) में प्रतिवादी क्र.- 01 एवं 02 की
माता श्रीमती सुधा अग्रवाल ने वादी के
साथ की थी?
02.. क्या वादी ने उक्त विक्रय प्रतिफल की ‘‘प्रमाणित नहीं’’
राशि दिनांक 30/12/2000 को ही
डी.डी. क्रमांक-080699 कीमती 4,15,800
रूपये (चार लाख पंद्रह हजार आठ सौ
रूपये) एवं दूूसरा डी.डी. क्रमांक-080700
कीमती 1,30,810/- रूपये ( एक लाख
तीस हजार आठ सौ दस रूपये) बनाकर
श्रीमती सुधा अग्रवाल को प्रदान किया था?
03.. क्या दिनांक 01/01/2001 को वादी ‘‘नहीं’’
को वादभूमि का कब्जा प्रदान किया गया?
04.. क्या वादी, वादभूमि का प्रतिवादी क्र.-01 ‘‘नहीं’’
से पंजीकृत विक्रय पत्र निष्पादित करा
पाने का अधिकारी है?
05.. क्या वादी, प्रतिवादी क्र.-01 एवं 02 के ‘‘नहीं’’
विरूद्ध स्थायी निषेधाज्ञा की सहायता
प्राप्त करने का अधिकारी है?
06.. क्या वादी का दावा समयावधि के भीतर ‘‘हां’’’
प्रस्तुत है?
07.. क्या वादी ने दावे का उचित रूप से ‘‘हां’’
मूल्यांकन कर उचित रूप से न्यायशुल्क
चस्पा किया है?
08.. क्या प्रकरण में अनावश्यक पक्षकार का ‘‘हां’’
कुसंयोजन है?
09.. सहायता एवं व्यय? ‘‘वादी का दावा अस्वीकार कंडिका-62 के अनुसार’
सुविधा की दृष्टि से तथा साक्ष्य की पुनरावृत्ति न हो इसलिये वाद-प्रश्न
क्रमांक-01 एवं 02 का सकारण निष्कर्ष एक साथ दिया जा रहा है।
14.. वादी की ओर से स्वयं वादी गोपाल तुलसीदास राठी वा.सा.-01, रमेश माहेश्वरी वासा.-02,
जसवंत कुमार साहू वा.सा-03 तथा रविन्द्र मसराम वा.सा.-04 का मौखिक
साक्ष्य न्यायालय में अंकित किया गया है तथा दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में वादी द्व
ारा पेश खसरा पाांचशाला ग्राम-करहीडीह वर्ष 2000-2001 सुधा बाई जौजे कपिल
नारायण अग्रवाल के भूमि ख.ने.-127, 134, 332 की मूल प्रति पेश की है जो प्र.पी.
-01, बी.-0.1 ग्राम करहीडीह वर्ष 1999-2000, 2000-2001 सुधा बाई जौजे
कपिल नारायण अग्रवाल के भूमि का मूल प्रति पेश है, जो प्र.पी.-02, किश्तबंदी
खतौनी आसामीवार 16 कॉलम दिनांक 01/01/2001 की मूल प्रति प्र.पी.-03,
सौदाशुदा भूमि का पटवारी नक्शा दिनांक 01/01/2001 की मूल प्रति प्र.पी.-04,
सुधा अग्रवाल जौजे कपिल नारायण के ग्राम करहीडीह स्थित भूमि की ऋण
पुस्तिका का भाग एक का मूल प्र.पी.-05, सुधा अग्रवाल जौजे कपिल नारायण के
ग्राम करहीडीह स्थित भूमि का ऋण पुस्तिका का भाग दो का मूल प्र.पी.-06, ग्राम
करहीडीह वर्ष 2002-2003 अनुपमा पिता कपिल नारायण अग्रवाल के भूमि का बी.
-01 मूल प्रति प्र.पी.-07, प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा वादी को दिया गया पत्र दिनांक
20/01/2001 की मूल प्रति प्र.पी.-08, प्रतिवादी क्र.-02 द्वारा वादी को दिया गया
पत्र दिनांक 15/10/2013 की मूल प्रति प्र.पी.-09, महाराष्ट्र दुकान स्थापना
अधिनियम 1948 के अंतर्गत स्थापना पंजीयन जो टी.टी.आर दुर्ग अशोक स्टोर्स के
मालिक गोपाल तुलसीदास राठी है का प्रमाण पत्र की मूल प्रति प्र.पी.-10 तथा
सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया अमरावती द्वारा टी.टी. आर. दुर्ग का बैंक स्टेटमेंट जो
दिनांक 01/01/2000 से दिनांक 31/12/2000 तक की मूल प्रति प्र.पी.-11
पेश की गयी है।
15.. द ूसरी ओर प्रतिवादी क्र.-01 की ओर से स्वयं श्रीमती डॉ. अनुपमा अश्विन देशमुख
प्र.सा.-01 का मौखिक साक्ष्य कराया गया है। दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में प्रकरण में
विवादित भूमि ग्राम करहीडीह प.ह.न ं.-17 तहसील व जिला-दुर्ग के संबंध में खसरा
पांचसाला वर्ष 2000-2001 से लेकर वर्ष 2014 से 2015 तक मुख्य प्रतिलिपिकार
जिला कार्यालय, दुर्ग से प्राप्त प्रमाणित सत्यप्रतिलिपि प्र.डी.-03 पेश की गयी है।
16.. प्रतिवादी क्र.-02 की ओर से स्वयं डॉ. अजय अग्रवाल प्र.सा.-02 का मौखिक साक्ष्य
कराया गया है। दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में प्रकरण में उसकी माता श्रीमती सुधा
अग्रवाल का वर्ष 2000-2001 का आयकर विवरणी की छायाप्रति प्रस्तुत की गयी है
तथा उसकी माता स्व. सुधा अग्रवाल ने अपने जीवन काल में नाबार्ड से जो बॉण्ड
क्रय की थी उससे संबंधित बॉण्ड के प्रमाण पत्र की छायाप्रति प्रस्तुत की है।
उपरोक्त असल उसके आधिपत्य में नहीं है। उपरोक्त बॉण्ड के संबंध में उसकी
माता द्वार जो आवेदन पत्र दिया गया था उस आवेदन पत्र के अभिस्वीकृति का
दस्तावेज प्र.डी.-01 तथा उपरोक्त बॉण्ड के संबंध में उसकी माता स्व. सुधा
अग्रवाल को ब्याज प्राप्त हुआ था, उससे संबंधित वारण्ट प्र.डी.-02 पेश की गयी
है।
17.. वादी की ओर से तर्क किया गया है कि इस प्रकरण में करार का पालन करने के
लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। इस प्रकरण में समय संविदा का सार नहीं
है और इस कारण से प्रकरण समय सीमा से बाधित नहीं है और उसने अपनी ओर
से प्रस्तुत माननीय न्यायदृष्टांत D.S.Thimmappa Vs. Siddaramakka 1997 (1)
MPWN 73 पर निर्भरता व्यक्त की है।
18.. वादी का यह भी तर्क है कि उसके द्वारा वाद भूमि को क्रय करने के के संबंध में
प्रतिफल की राशि दो डी.डी. के माध्यम से प्रदान की गयी है, जो कि डॉ.श्रीमती
सुधा अग्रवाल के खाते में जमा होकर के उसे प्राप्त हुई है। वादी की ओर से यह
भी प्रमाणित किया गया है कि प्रतिफल की राशि जो डी.डी. के माध्यम से प्राप्त की
गयी थी। उस राशि में से 5,00,000/-रूपय े (पांच लाख रूपये) को नाबार्ड बॉण्ड
में इन्वेस्ट करके केपिटल गेन टैक्स का लाभ प्राप्त किया गया है। विक्रय प्रतिफल
की राशि को यदि दो वर्ष के भीतर इन्वेस्ट किया जाता है, तो केपिटल गेन टैक्स
से विमुक्ति प्राप्त होती है। वादी ने अपने साक्ष्य के द्वारा प्रमाणित किया है कि उसे
वादभूमि क्रय करने के परिणामस्वरूप प्रतिफल की राशि प्रदान की है, जिसे डॉश्रीमती
सुधा अग्रवाल की ओर से जो आयकर विवरिणी वर्ष 2000-2001 में दाखिल
किया गया है, उसमें भी कृषि भूमि ग्राम-करहीडीह की विक्रय करने और उससे
प्राप्त प्रतिफल राशि से नाबार्ड बाण्ड क्रय करने के संबंध में उल्लेखित है। हालांकि
उक्त आयकर विवरिणी का मूल दस्तावेज आई.टी. विभाग द्वारा ढ ूंढने पर नहीं
मिलना बताया गया है, परंतु प्रकरण में जो छायाप्रति प्रस्तुत की गयी है, उससे यह
स्पष्ट हो जाता है कि दो डी.डी. के माध्यम से प्रतिफल की राशि प्राप्त की गयी है।
उक्त प्रतिफल की राशि को नाबार्ड बाण्ड में विनियोजित की गयी है और प्रतिवादी
क्र.-01 उसकी नॉमिनी रही है।
19.. माता की मृत्यु के बाद प्रतिवादी क्र.-01 ब्याज भी प्राप्त करती रही है। डॉ.श्रीमती
सुधा अग्रवाल से क्रय करने का करार हुआ था । प्रतिफल की राशि दी गयी थी
और डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल ने वादभूमि का कब्जा उसे प्रदान कर दिया था और
तब से वह सब्जी भाजी लगाकर वादभूमि के कब्जे में है। रजिस्ट्री के पूर्व डॉश्रीमती
सुधा अग्रवाल की मृत्यु हुई और वादभूमि को प्रतिवादी क्र.-01 के नाम पर
वसीयत करने के आधार पर वादी, प्रतिवादी क्र.-01 से वादभूमि का पंजीकृत
बयनामा करा पाने का अधिकारी है। उसके पक्ष में डिक्री दी जावे।
20.. प्रतिवादी क्र.-01 की ओर से यह तर्क किया गया है कि वादी की ओर से चार
गवाह प्रस्तुत किये गये हैं, जिसमें स्वयं वादी है, दूसरा उसका जीजा है, तीसरा
दलाल है, जो कुछ साबित नहीं कर पाया, जिसे प्रकरण की जानकारी नहीं है और
उसने कोई तथ्य प्रमाणित नहीं किया है। चौथा सरकारी गवाह आयकर विभाग का
है, जिसके द्वारा वर्ष 2000-2001 का आयकर विवरिणी का मूल दस्तावेज नहीं
मिलना बताये जाने पर वादी ने प्रतिवादी क्र.-02 को नोटिस टू प्रोड्यूस डॉक्यूमेंट
देकर आयकर विवरिणी की पावती की छायाप्रति प्रस्तुत कराया गया है, जो कि
साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है।
21.. आगे प्रतिवादी क्र.-01 का तर्क है कि इस प्रकरण में वादी का न तो डॉ.श्रीमती
सुधा अग्रवाल और न ही प्रतिवादी क्र.-01 से कभी कोई लिखित में करार हुआ है।
कब्जा सौंपे जाने के संबंध में भी कोई लिखित में कार्यवाही नहीं की गयी है। वर्ष
2001 में डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल की मृत्यु होने से जो करार होना बताया जा रहा
है, वह स्वमेव समाप्त हो गया है। वादी ने ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं किया है
कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के द्वारा किया गया ऐसा कोई करार उसकी मृत्यु के
बाद उसकी आल-औलाद को लागू होगी। तथाकथित 5,00,000/-रूपये (पांच
लाख रूपये) देने के उपरांत लंबे अंतराल तक वादी मौन रहा। यह उसके आचरण
को दर्शाता है। वादी, प्रतिवादी का पड़ोसी था उसके बाद उसने कभी भी प्रतिवादी
क्र.-01 को या डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल को उसके जीवनकाल में कभी कोई नोटिस
नहीं दिया और न ही कोई पत्र लिखा कि रजिस्ट्री कराओ। प्रतिवादी क्र.-02 जो
भाई है के द्वारा मुख्तियार के हैसियत से जब हितों के विपरीत कार्य करने लगा
तब मुख्तियार निरस्त किया गया। उसके बाद वादी उसके भाई प्रतिवादी क्र.-02
के साथ सांठगांठ कर कूटरचित दस्तावेज तैयार करके यह दावा प्रस्तुत किया है।
वादी का अभिवचन है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल सौदे के बाद ग्राम-करहीडीह
आयी। जबकि बयान में कहता है कि सौदे के पहले आयी थी। इसी प्रकार से
अभिवचन एवं कथन मे परस्पर विरोधाभास है। वादी एवं प्रतिवादी क्र.-02 के बयान
के अनुसार वर्ष 2003 में इस बात की जानकारी हुई कि वादभूमि का ख.नंं. परिवर्तित
होकर नया नंंबर हो गया है और उसके रकबे में कमी हो गयी है, परंतु
जो प्र.पी.-08 का पत्र है वह वर्ष -2001 का है और उसमें यह उल्लेखित है कि
वादी ने बताया कि वर्ष 2003 में वादभूमि का ख.ने. बंदोबस्त के बाद नया हो गया
है। वर्ष -2003 की बात को वर्ष -2001 में लिखा गया है। जिससे कि वादी एवं
प्रतिवादी क्र.-02 की सांठगांठ एवं दुरभि संधि होना और उनके आचरण को दर्शाता
है। प्र.पी.-09 में भी यह उल्लेखित नहीं है कि प्रतिवादी क्र.-02 को प्रतिवादी क्र.
-01 ने कहा है। इस प्रकरण में कोई भी पत्र प्रतिवादी क्र.-01 ने वादी को नहीं
लिखा है और इसी प्रकार से वादी ने भी प्रतिवादी क्र.-01 को पत्र नहीं लिखा है।
प्रतिवादी क्र.-02 वादी के हिसाब से कार्य कर रहा है। प्रतिवादी क्र.-02
तहसीलदार के न्यायालय में ऋण पुस्तिका को पेश नहीं किया, परंतु वादी के कहने
पर न्यायालय में पेश कर दिया, क्योंकि वह वादी को लाभ पहुंचाना चाहता है।
मई-जून 2001 में वादी के अनुसार रजिस्ट्री होना तय हुआ था और यह दावा 18
वर्ष बाद पेश किया गया है, जो कि म्याद से बाहर है। प्रतिवादी क्र.-02 से कोई
अनुतोष की मांग नहीं की गयी है। फिर भी उसे अनावश्यक रूप से प्रकरण में
पक्षकार बनाया गया है, वादी को लाभ पहुंचाने के लिये। काल्पनिक कूटरचित
दस्तावेज के आधार पर दावा पेश किया गया है, सव्यय निरस्त किया जावे।
22.. प्रतिवादी क्र.-02 का तर्क है कि उसके विरूद्ध कोई अनुतोष की मांग नहीं की गयी
है, वह प्रकरण का मात्र प्रोफार्मा पार्टी है। प्र.पी.-08 के पत्र के द्वारा उसने प्रतिफल
की राशि प्राप्त करने के संबंध में सूचित किया है। उसके उपर दुरभि संधि किये
जाने सांठगांठ करने के संबंध में आरोप लगाया गया है, जो निराधार है और
प्रतिवादी क्र.-01 ने प्रमाणित भी नहीं किया है।
23.. वादी गोपाल तुलसीदास राठी वा.सा.-01 ने अपने अभिवचन के समर्थन में कथन
किया है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के स्वामित्व की वादभूमि को बेचने का पक्का
सौदा अमरावती में 5,46,610/-रूपयेे (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस
रूपये) में तय किया गया था। इस साक्षी के अनुसार उसने दो डी.डी. के द्वारा
उक्त राशि अदा की थी। डी.डी. क्र.-08699 कीमती 4,15,800/-रूपये (चार लाख
पंद्रह हजार आठ सौ रूपये) तथा दूूसरा डी.डी. क्र.-080700, कीमती
1,30,810/-रूपये (एक लाख तीस हजार आठ सौ दस रूपये) नागपुर ब्रांच से
भुगतान के लिये दिनांक 30/12/2000 को बनाकर दिया था, जिसे डॉ.श्रीमती
सुधा अग्रवाल ने स्वीकार की थी। इस साक्षी के अनुसार दिनांक 01/01/2001
को वह और डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल तथा उसके मुख्तियार प्रतिवादी क्र.-02 दुर्ग
आये थे। हल्का पटवारी से दस्तावेज अभिलेख की नकल तत्काल प्राप्त कर मौके
पर गये थे, जहां पर उसे वादभूमि का कब्जा दिया गया था और मूल ऋण
पुस्तिका क्रमांक-840487 भी उसे दिया गया था।
24.. वादी का यह भी कथन है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल की मृत्यु दिनांक
11/05/2001 को हो गयी थी। कुछ माह बाद प्रतिवादी क्र.-01 ने उसे जानकारी
दी कि वादभूमि को उसकी मां ने उसके नाम पर वसीयत की है और उसके भाई
प्रतिवादी क्र.-02 को उसने अपना मुख्तियार नियुक्त की है। जब भी समय मिलेगा,
दुर्ग जाकर विक्रय पत्र का निष्पादन करवा लेवे। इस साक्षी के अनुसार किसी न
किसी कारण से पंजीयन की कार्यवाही टलती गयी। वादी के अनुसार प्रतिवादी क्र.
-02 ने उसे दिनांक 20/01/2001 को और दिनांक 15/10/2013 को पत्र
प्रेषित कर सौदे को स्वीकार करते हुए वादभूमि के पंजीयन कराने के लिये सूचित
किया था।
25.. वादी के अनुसार दिनांक 06 एवं 10 अप्रैल के बीच जब पंजीयन के लिये उसके
रायपुर आने का कार्यक्रम बना रहा था, तब प्रतिवादी क्र.-02 ने दिनांक
02/04/2015 को मोबाईल के माध्यम से जानकारी दिया कि प्रतिवादी क्र.-01 ने
उसे दिये मुख्तियारनामा को रद्द कर दी है और वादभूमि के विक्रय करने से मना
कर दी है, इसलिये आप प्रतिवादी क्र.-01 से ही चर्चा करेें। इस साक्षी के अनुसार
वह दिनांक 05/04/2015 को स्वयं प्रतिवादी क्र.-01 के निवास में गया और
विक्रय पत्र के संबंध में बात की तो उसने इंकार कर दी कि कीमत काफी बढ चुकी है और मां के द्वारा किये गये सौदे का पालन नहीं कर सकती। वर्तमान दर
पर ही विक्रय पत्र की कीमत लेकर बिक्रीनामा निष्पादित करेेगी।
26.. वादी का यह भी कथन है कि वह वादभूमि पर साग-सब्जी, फसल लगाने के लिये
और देखरेेख के लिये अपने रिश्तेदार रमेश माहेश्वरी को नियुक्त किया है, जिसने
उसे जानकारी दी कि कुछ लोग वादभूमि का भूमि देखने और भूमि को क्रय करने
की बात कर रहे हैं, तब वह दिनांक 10/04/2015 को दुर्ग आये तब उसे
जानकारी हुई कि तहसीलदार, दुर्ग से प्रतिवादी क्र.-01 वादभूमि से संबंधित
किसान किताब प्राप्त करने हेतु न्यायालय में कार्यवाही की, तब उसने यह दावा पेश
किया है।
27.. वादी ने प्रतिपरीक्षण में यह स्वीकार किया है कि मौखिक में सौदा तय हुआ था और
मई-जून 2001 तक विक्रय पत्र का पंजीयन व निष्पादन होना तय हुआ है।
प्रतिपरीक्षण की कंडिका-12 में यह भी स्वीकार किया है कि डॉ.श्रीमती सुधा
अग्रवाल से सौदा होने के संबंध में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, तब इस साक्षी
से पूछा गया तो उसने बताया कि वह व्यापारी है और व्यापार के लिये पुरानी
कहावत है कि-‘‘पहले लिख बाद में दे, भूल पड़े तो कागज से ले’’ वादी व्यापारी
व्यक्ति है और उसने कोई लिखापढी नहीं की तथा बिना लिखापढ़ी के
5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) की राशि किस
आधार पर प्रदान किया यह प्रश्न उत्पन्न होता है। ऐसा भी नहीं है कि वादी अथवा
डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल अथवा प्रतिवादी क्र.-02 गांव देहात के हो और पढेे लिखे
न हों। स्वयं प्रतिवादी क्र.-02 पेशे से डॉक्टर है और वादी व्यापारी है और उसे
लिखापढी की अहमियत की पूर्ण जानकारी है।
28.. वादी ने प्रतिपरीक्षण की कंडिका-13 मे यह भी स्वीकार किया है कि उसने वर्ष
2000 से 2015 तक कभी भी रजिस्ट्री करने के लिये डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल को
उसके जीवन काल तक तथा प्रतिवादी क्र.-01 और 02 को कभी कोई लिखित
नोटिस नहीं दिया। दावा पेश करने के पूर्व भी प्रतिवादीगण को कोई लिखित
नोटिस नहीं देना स्वीकार किया है। इससे वादी का आचरण प्रकट होता है।
उसकी तैयारी एवं तत्परता नहीं थी, यह भी स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। यदि
वास्तव में सौदा हुआ था तो 5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः
सौ दस रूपये) से अधिक की राशि दी गयी थी और 15 वर्षों तक वह रजिस्ट्री के
संबंध में कोई कार्यवाही अर्थात कोई लिखित नोटिस या विधिक नोटिस क्यूं नहीं
दिया यह प्रश्न उत्पन्न होता है। अतः वादी कभी भी पंजीयन के लिये तैयार या
तत्पर रहा हो ऐसा प्रमाणित नहीं हो रहा है।
29.. वादी ने यह भी स्वीकार किया है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल अथवा प्रतिवादी क्र.
-01 ने उसे कभी लिखकर नहीं दिया कि वे वादभूमि का कब्जा उसे दे रहे हैं।
साथ ही यह भी स्वीकार किया है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल ने उसे सौदा
अनुसार डी.डी. रकम प्राप्त कर रही हैं या की हूं ऐसा लिखकर नहीं दिया है। यह
भी स्वीकार किया है कि सौदे के 12-13 साल बाद भी उसने पैसा ले लिया हो,
सौदा न कर रही हो, पैसा रजिस्ट्री नहीं कर रही हो कहकर मुकदमा नहीं किया
है। जब प्रतिवादी क्र.-01 ने अपने मुख्तियरनामा निरस्त किया तब यह दावा पेश
किया गया है, जिससे भी यह स्पष्ट होता है कि जब तक प्रतिवादी क्र.-02 के पक्ष
में मुख्तयारनामा था तब तक उसकी और वादी की मिली भगत थी और तब तक
वादी ने कोई कार्यवाही नहीं की।
30.. वादी के जीजा रमेश माहेश्वरी वा.सा.-02 के द्वारा न्यायालय में बताया गया है कि
वह वादभूमि में अपने साले वादी की ओर से वादभूमि का देखरेख करता है और
सब्जी भाजी लगाता है। इस साक्षी ने अपने शपथ पत्रीय बयान में यह नहीं बताया
है कि सौदे के समय वह उपस्थित था और सौदा हुआ है। वादी ने उसे वादभूमि
की देखरेख के लिये नियुक्त किया हो ऐसा कोई दस्तावेज भी निष्पादित नहीं होना
बताया गया है। इस साक्षी का कहना है कि वाद भूमि से लगकर स्वयं की भूमि है।
25-30 वर्ष से स्वयं का कृषि कार्य करना बताया गया है। वादभूमि पर वादी का
कब्जा दर्ज कराये जाने का उनकी ओर से कोई प्रयास नहीं किया गया है। इस
साक्षी ने यह भी स्वीकार किया है कि वादभूमि राजस्व अभिलेख खसरा पांचसाला
में वादी का कब्जा दर्ज करने के लिये पटवारी और तहसीलदार के समक्ष कोई
कार्यवाही नहीं किया है। प्रकरण में वादी की ओर से वादभूमि का खसरा पांचसाला
एवं बी-1 की प्रति प्रस्तुत की गयी है, जो कि प्र.पी.-01 एवं 02 है तथा नोटिस प्रपी.-03
है। ऋण पुस्तिका प्र.पी.-04, 05 एवं 06 पेश की गयी है। जिनमें वादभूमि
में भूमिस्वामी के रूप में डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल का नाम दर्ज है तथा वादभूमि के
आधिपत्य में भी डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल का नाम दर्ज है। वर्ष 2002-2003 का
बी-1 प्र.पी.-7 प्रस्तुत किया गया है, उसमें भी भूमिस्वामी के रूप में प्रतिवादी क्र.
-01 का नाम वादभूमि में दर्ज है। दस्तावेजी साक्ष्य, जो राजस्व अभिलेख की
प्रमाणित प्रतिलिपि है के सही होने की उपधारणा की जाती है। राजस्व अभिलेख के
अनुसार वादभूमि में कब्जा कभी भी वादी का नहीं है, बल्कि प्रतिवादी क्र.-01 का
कब्जा होना प्रमाणित हो रहा है। अतः इस संबंध में वादी और उसके साक्षी का
कथन दस्तावेजी साक्ष्य से खण्डित होकर अविश्वसनीय हो जाता है कि वादभूमि में
वादी का आधिपत्य है।
31.. वादी के गवाह जवसंत साहू वा.सा.-03 ने मुख्य परीक्षण में बताया है रमेश
माहेश्वरी वा.सा.-02 अपने साले वादी की ओर से वादभूमि पर सब्जी भाजी लगाने
का काम करता है। इस साक्षी ने यह भी कहने का प्रयास किया है कि वादी ने डॉश्रीमती
सुधा अग्रवाल से 2000 रूपये के आसपास वादभूमि को खरीदा था। इसकी
जानकारी उसे रमेश माहेश्वरी वा.सा.-02 ने दी थी और वादी से मिलवाया था, तब
वादी ने 5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) में
खरीदना बताया था। प्रतिपरीक्षण में इस साक्षी ने बताया है कि ग्राम करहीडीह में
उसके नाम पर कोई जमीन नहीं है। वह जमीन दलाली का काम करता है ओर
सौदा होते हुए खरीदते हुए विक्रय करते हुए नहीं देखा है। वादी के कहने पर
गवाही के लिय आना बताया है और शपथ पत्रीय मुख्य परीक्षण में लिखी बात सुनी
सुनायी बात होना बताया है। यह साक्षी जो कि दलाल है, ने भी प्रतिपरीक्षण में
स्वीकार किया है कि खरीदने वाले को लिखकर कब्जा दिया गया है ऐसा उसने
कोई दस्तावेज नहीं देखा है। अतः यह साक्षी भी प्रतिपरीक्षण में खण्डित हो जाता
है।
32.. वादी की ओर से आयकर विभाग के ऑफिसर रविन्द्र मेश्राम वा.सा.-04 को परीक्षित
कराया गया है। इस साक्षी ने बताया है कि वर्ष -2001-2002 वित्तीय वर्ष
01/04/2000 से 31/03/2001 तक का डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल का दस्तावेज
पेश करना था, जो कि उनके विभाग से ढूंढने पर न मिलने पर प्रस्तुत नहीं किया
जा सका। प्रकरण में वादी की ओर से यह प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है
कि जो नोटिस टू प्रोड्यूस के तहत् डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के आयकर विवरिणी
की पावती की छायाप्रति दस्तावेज वादी के कहने पर प्रतिवादी क्र.-02 ने प्रस्तुत
की है उसके अनुसार वादभूमि के सौदे की राशि दो डी.डी. के माध्यम से प्राप्त की
गयी है और उसे नाबार्ड बॉण्ड में इन्वेस्ट करके आयकर में केपिटल गेन टैक्स के
मद में छूट प्राप्त की गयी है। चूंकि आयकर विवरणी की पावती की छायाप्रति
अर्थात अभिस्वीकृति की छायाप्रति भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रावधन के तहत्
लोक दस्तावेज की परिधि का है और धारा-65(5) के तहत् प्रमाणित दस्तावेजी
साक्ष्य में ग्राह्य है। छायाप्रति दस्तावेजी द्वितीयक साक्षी के रूप में ग्राह्य है और
इस कारण से जो छायाप्रति दस्तावेज प्रस्तुत की गयी है वह साक्ष्य में ग्राह्य नहीं
है और उसे प्रदर्शित नहीं किया गया है। उक्त दस्तावेज से यह तथ्य भी प्रमाणित
नहीं होता है कि वादभूमि के ही विक्रय करने से प्राप्त राशि दो डी.डी. द्वारा प्राप्त
की गयी है और जिसे केपिटल गेन टैक्स के मद में आयकर से छूट प्राप्त की गयी
है। यह संभव है कि उक्त राशि किसी अन्य संपत्ति या किसी अन्य लेनदेन के
परिपेक्ष्य में प्राप्त की गयी हो। वादी को यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि
उसका सौदा अमुक तारीख को हुआ था और उसी अमुक तारीख को जो सौदा
हुआ है वह वादभूमि का ही है, के एवज में ही दो डी.डी. के माध्यम से प्रतिफल
राशि प्रदान की गयी है। प्रकरण में मौखिक सौदा कब, कहां, किस समय, किस
गवाह के समक्ष हुआ था, के संबंध में वादी एवं प्रतिवादी क्र.-02 दोनों मौन हैं। अत: वादी का वादभूमि के संबंध में डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल से मौखिक सौदा हुआ था
यह तथ्य प्रकरण में प्रमाणित नहीं हो रहा है।
33.. प्रतिवादी क्र.-01 की ओर से सौदा नही होने, प्रतिफल राशि प्राप्त नहीं होने के
संबंध में दिया गया साक्ष्य अखण्डित है। इस साक्षी द्वारा वाद भूमि का भूमिस्वामी
होना एवं आधिपत्यधारी होना प्रमाणित किया गया है।
34.. प्रतिवादी क्र.-02 ने जो वादी के दावे को सौदा होने और प्रतिफल की राशि प्राप्त
होने के संबंध में और दो पत्र लिखने के संबंध में जो स्वीकृति की है वह साक्ष्य
प्रतिवादी क्र.-01 के प्रतिकूल है और उसे प्रतिवादी क्र.-01 के विरूद्ध उपयोग नहीं
किया जा सकता। क्योंकि प्रतिवादी क्र.-02 और प्रतिवादी क्र.-01 का आपस में
विवाद है। पारिवार की बात होना और सगे भाई होने के कारण पॉपर ऑफ एटार्नी
निरस्तीकरण का कोई स्पष्टीकरण प्रतिवादी क्र.-01 के द्वारा नहीं दिया जाना
स्वाभाविक एवं विश्वसनीय है, जिसमें संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
35.. Now it is to consider as to whether the plaintiff in the suit, established
his readiness and willingness to perform his part of the agreement,
enabling him for the entitlement of the discretionary relief. Where no time
was fixed for performance of an agreement, Section 46 of the Indian
Contract Act was attracted and the contract had to be performed within a
reasonable time. No doubt, the explanation to Section 46 of the Indian
Contract Act showed that what is reasonable time would depend upon the facts of the case but on the facts of this case, going by the averments
in the plaint in the light of the written statements filed, it is clear that
15 years could not be treated as reasonable time within which the
obligation under the contract had to be performed by the defendant.
Learned counsel of the defendant, therefore, submitted that the suit
was barred by limitation.
36.. In a case where no time for performance was fixed, the court had to find
the date on which the plaintiff had notice that the performance was
refused and on finding that date, to see whether the suit was filed within
three years thereof. This position explained in the recent decision in R.K.
Parvatharaj Gupta Vs. K.C. Jayadeva Reddy [2006 (2) SCALE 156]. In
the case on hand, there is no date for performance is fixed if so, the suit
could be held to be barred by limitation only on a finding that the
plaintiffs had not sent notice to the defendant for performance of the
agreement.
37.. The question as to how long a plaintiff, even if he had performed the
whole of his obligations under an agreement for sale, in which a time for
performance is not fixed, could keep alive his right to specific
performance and to come to court. The relief of specific performance is
discretionary and is governed by the relevant provisions of the Specific
Relief Act.The question of limitation has to be decided only on the basis
of Article 54 of the Limitation Act.
38.. For the purpose of Article 54, agreements can be divided into two
categories as follows:
1) Agreements wherein time has been prescribed for performance or a date
is mentioned on the date on or before which the performance is to be
made; and
2) Agreements wherein no such time or date is prescribed for performance.
In the first category of agreements, the limitation for filing
the suit for specific performance shall start from the date of expiry of the
period stipulated in the agreement or the date mentioned in the agreement
as the date on or before which performance is to be made. In the second
category of cases, limitation shall not start running till performance is
refused and the plaintiff gets notice of such refusal to perform. Only from
the date of getting notice that the performance is refused, limitation for
filing suit for specific performance in the second category of cases will
start running.
39.. माननीय न्यायदृष्टांत D.S.Thimmappa Vs. Siddaramakka 1997 (1) MPWN
73 उपरोक्त माननीय न्यायदृष्टांत में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय
विलेख निष्पादित करने से इंकार करने के अगले दिन विनिर्दिष्ट पालन का वाद
फाईल किया गया, जो सीमा के भीतर है। इस प्रकरण में स्वयं वादी ने स्वीकार
किया है कि उसने कभी भी डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के जीवनकाल में विक्रय
विलेख करने के लिये कोई नोटिस नहीं दिया है। इस साक्षी ने यह भी स्वीकार
किया है कि उसने कभी भी प्रतिवादी क्र.-01 और न ही प्रतिवादी क्र.-02 को
विक्रय विलेख निष्पादित करने के लिये कभी कोई नोटिस नहीं दिया है। यहां तक
दावा पेश करने के पूर्व भी प्रतिवादीगण को कोई नोटिस नहीं देना व्यक्त किया है।
अतः यह तथ्य प्रमाणित नहीं हो रहा है कि, जब प्रतिवादीगण को नोटिस ही नहीं
दी गयी तो, उनके द्वारा कब और किस तिथि को विक्रय विलेख निष्पादित करने से
इंकार किया गया। अतः उपरोक्त माननीय न्यायदृष्टांत के आलोक में यह पाया
जाता है कि वादी ने कभी भी प्रतिवादी क्र.-01 को विक्रय पत्र के निष्पादन के
लिये न तो कभी कहा है, न ही कभी पत्र लिखा है और न ही कोई अधिवक्ता के
माध्यम से कोई नोटिस प्रेषित कराया है, जिसके अभाव में प्रतिवादी क्र.-01 की
ओर से इंकार किया गया हो, ऐसा तथ्य वादी ने स्थापित कर प्रमाणित नहीं किया
है।
40.. यह सही है कि प्रकरण में मौखिक करार होना वादी ने बताया है। साक्ष्य में
जून-2011 की तिथि को विक्रय विलेख निष्पादित करना बताया गया है। जून
-2001 में विक्रय विलेख का निष्पादनल करने के संबंध में दिनांक 20/01/2001
को प्रतिवादी क्र.-02 के द्वारा प्र.पी.-08 का पत्र लिखा गया है। उक्त पत्र में यह
स्पष्ट लिखा हुआ है कि मां डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल अथवा उसके पावर ऑफ
एटार्नी प्रतिवादी क्र.-02 के द्वारा विक्रय पत्र का निष्पादन किया जायेगा। उक्त पत्र
प्र.पी.-08 के पालन में वादी ने क्या किया और वह डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के
जीवन काल में व्यक्तिगत् रूप से उससे अथवा प्रतिवादी क्र.-02 एटार्नी से विक्रय
पत्र का निष्पादन क्यों नहीं कराया, का स्पष्टीकरण उचित रूप से नहीं दिया गया।
स्वयं वादी ने कोई रूचि लेकर के विक्रय पत्र के निष्पादन कराये जाने के संबंध में
कभी कोई लिखित सूचना प्रेषित की गयी हो ऐसा पूरे प्रकरण में नहीं पाया गया
है। अतः वादी का यह दावा कि प्रतिवादी क्र.-01 के द्वारा विक्रय पत्र. के निष्पादन
से इंकार किया गया है, किसी तिथि से उसे वाद कारण प्राप्त हुआ है, के संबंध में
अभिवचन, तर्क एवं साक्ष्य खण्डित होकर अविश्वसनीय हो जाता है।
41.. वादी ने वादभूमि के सौदा होने के संबंध में कोई दस्तावेज पेश नहीं किया है। अतः
दस्तावेजी साक्ष्य के अभाव में यह प्रमाणित नहीं होता है कि वादभूमि जो कि अचल
संपत्ति है, के संबंध में विक्रय करने का पक्क सौदा किया गया था। दो डी.डी. के
माध्यम से डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल के पक्ष में राशि जमा होना बताया गया है।
उक्त दोनों डी.डी. की राशि वाद भूमि के विक्रय करने के एवज में प्रतिफल राशि
है। यह भी वादी के द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है। वादी के साक्ष्य से यह भी
प्रमाणित नहीं हो रहा है कि डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल को दो डी.डी. प्रदान की गयी
है। हालांकि प्रतिवादी क्र.-02 उसकी अभिस्वीकृति प्रदन करता है। जब सौदा होना
ही प्रमाणित हुआ है, तब जो दो डी.डी. के रूप में राशि प्राप्त करने की
अभिस्वीकृति दी गयी है, वह राशि वादभूमि के ही विक्रय के प्रतिफल की राशि
है, यह प्रमाणित नहीं होता है। वाद-प्रश्न क्रमांक-01 व 02 का निष्कर्ष ‘‘नहीं’’
नकारात्मक के रूप में दिया जाता है।
।। वाद-प्रश्न क्रमांक-03 एवं 05 का सकारण निष्कर्ष ।।
42.. वादी का अभिवचन एवं साक्ष्य है कि उसे मौखिक में कब्जा दिया गया था, परंतु
कब्जा किस व्यक्ति के समक्ष प्रदान किया गया था, के संबंंध में कोई स्वतंंत्र साक्ष्य
पेश नहीं किया गया है। इस साक्षी ने यह भी बताया है कि उसे वादभूमि के कब्जा
के साथ साथ ऋण पुस्तिका भी दी गयी थी। उक्त ऋण पुस्तिका को न्यायलाय में
प्रतिवादी क्र.-02 की ओर से प्रस्तुत किया गया है, जबकि वादी के अनुसार
वादभूमि के साथ उसे ऋण पुस्तिका प्राप्त हो चुकी थी, तब वह ऋण पुस्तिका को
प्रतिवादी क्र.-02 को कब वापस किया, के संबंध में वादी मौन है और इससे वादी
का आचरण तथा प्रतिवादी क्र.-02 का भी आचरण वादी के इस कृत्य से रिफ्लेक्ट
होता है।
43.. वादी द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजी साक्ष्य से, राजस्व अभिलेखों से, बी.-01 एवं खसरा
पांचशाला से पूर्व में डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल तथा उसके वर्तमान में प्रतिवादी क्र.
-01 का भूमिस्वामी हक व आधिपत्य होना प्रमाणित होता है। भू अभिलेख की
प्रविष्टियां धारा-117 भू राजस्व संहिता के तहत् सही होने की उपधारणा रखता है।
स्वयं वादी ने दस्तावेज प्रस्तुत किया है। प्रकरण में ऐसा नहीं है कि प्रतिवादी क्र.
-01 ने पेश किया हो जिसका खण्डन वादी ने किया हो। स्वयं वादी का दस्तावेज
है, जिस पर विश्वास किये जाने का कोई कारण नहीं है। अतः प्र.पी.-01, 02, 03
05 एवं 07 से यह प्रमाणित होता है कि वादभूमि के भूमिस्वामी डॉ.श्रीमती सुधा
अग्रवाल और कालांतर में, वर्तमान में प्रतिवादी क्र.-01 है और उन्हीं का पूर्व से
आधिपत्य रहा है। अतः यह प्रमाणित नहीं होता है कि दिनांक 01/01/2001 को
वादी को वादभूमि का आधिपत्य प्रदान किया गया था।
44.. चूूंकि वादी का वादभूमि में कब्जा में होना प्रमाणित नहीं होता है, इसलिये वह
स्थायी निषेधाज्ञा की सहायता प्राप्त करने का भी अधिकारी नहीं है।
।। वाद-प्रश्न क्रमांक-06 का सकारण निष्कर्ष ।।
45.. करार में समय सीमा न लेख होने पर समय पर ध्यान देना आवश्यक-यदि संविदा
के समय का स्पष्ट उल्लेख नहीं भी है, तब भी वादी को समय का विशेष ध्यान
देना अपेक्षित है। वादी को समय सीमा पर ध्यान देना अपेक्षित-वादी को समय
सीमा को ध्यान में रखकर कार्यवाही करना चाहिये। उक्त संबंध में माननीय
न्यायदृष्टांत-चंंदरानी वि. कमलरानी, ए.आई.आर. 1993 सु.को. 1742
46.. संविदा पूर्ण करने में यदि वादी अपने दायित्व के निर्वहन में स्वयं ही चूूक करता है
व प्रतिवादी की सूचना पर भी अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करता। साम्या उसके
पक्ष में निर्धारित नहीं हो सकती जो स्वयं चुूूक व विलम्ब के लिये उत्तरदायी हों।
उक्त संबंध में माननीय न्यायदृष्टांत-जमसेद खोदार इरानी वि. बी.धनअी भाई,
ए.आई.आर. 1915 प्री.कौ. 83
47.. संविदा कि विनिर्दिष्ट पालन का वाद है। परिसीमा का बिन्दु तय किया जाना था।
प्रश्नगत संविदा में संविदा के पालन के संबंध में कोई समय नियत नहीं किया गया
था। ऐसी स्थिति में संविदा के पालन किए जाने के संबंध में सूचना-पत्र दिए जाने
के उपरांत इसकी इंकारी करने की दिनांक से परिसीमा का आरंंभ होना माना
जाएगा। इस संबंध में माननीय न्यायदृष्टांत-बसंती लाल बनाम रामेश्वर प्रसाद,
1994 म.प्र.लॉ.ज. 113, 1993 जे.एल.जे. 777 म.प्र. लागूू होते हैं। इस प्रकरण में
कोई ऐसी सूचना पत्र ही नहीं दी गयी है। अतः उसके इंकारी का प्रश्न ही नहीं है।
48.. परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 54 की प्रयोज्यता के क्षेत्र को स्पष्ट किया
गया। म.प्र.उच्च न्यायालय ने व्यक्ति किया कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के
अनुच्छेद 54 का प्रथम भाग अस्पष्ट शब्दों वाले करारों पर प्रयोज्य नहीं होता है जो
कि प्रॉमीसर विक्रय विलेख को निष्पादित करने का परिवचन किसे विशिष्ट घटना
के घटित होने पर नहीं देता है। म.प्र.उच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि
परिसीमा अधिनियम के अनुच्देद 54 के द्वितीय भाग को प्रयोज्य करने के लिये यह
प्रमाणित करना आवश्यक है कि न केवल प्रॉमीसर ने संविदा के संपादन से इंकार
किया था, अपितु यह भी कि प्रॉमीसर को संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद के 3
वर्षों के पूर्व से ऐसी इंकारी की जानकारी थी। इस संबध में माननीय
न्यायदृष्टांत-मीथू खान बनाम पिपरिया वाली, ए.आई.आर. 1985 म.प्र. 39ः1985
जे.एल.जे. 169ः 1985 म.प्र.लॉ.ज. 119 म.प्र. लागूू होते हैं।
49.. वादी के अनुसार मौखिक सौदा वर्ष 2000 में हुआ था। वर्ष 2001 में प्रतिवादी क्र.
-02 ने उसे पत्र लिखकर रजिस्ट्री करने के लिये कहा था। सौदा दिनांक के बाद
से वादी ने कभी भी प्रतिवादीगण को कोई लिखित नोटिस दे करके वाद भूमि के
विक्रय पत्र निष्पादित किये जाने की मांग नहीं की है। वादी का यह तर्क है कि
समय सौदे का सार नहीं था। मौखिक सौदा वर्ष 2000 में होना बताये जाने के
लगभग 15 वर्ष के बाद यह दावा पेश किया गया है। ऐसी स्थिति में परिसीमा
अधिनियम के अनुच्छेद 54 का अवलोकन किया जाता है, जिसमें संविदा के
विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद प्रस्तुत किये जाने की समय सीमा तीन वर्ष बतायी
गयी है और अवधि की गणना यदि संविदा में वर्णित संपादन के दिनांक से
अथवा ऐसा किसी वर्णन के अभाव में उस दिनांक से परिसीमा की अवधि की
गणना की जाएगी जिस दिनांक को संविदा के विनिर्दिष्ट पालन से इंकार किया
गया हो। वादी ने यदि सूचना पत्र दिया होता तो उसके उपरांत उसके इंकारी
करने दिनांक से परिसीमा की गणना की जाती, परंतु इस प्रकरण में ऐसा नहीं
पाया जाता है। कभी भी संविदा बिना किसी कारण से कई वर्षों तक यूूं हीं खुला
नहीं रखा जा सकता। वादी ने प्रतिवादी क्र.-02 से मिलकर वाद को समयावधी के
भीतर लाने के सबंध में जो अभिवचन एवं साक्ष्य पेश किया है वह इस कारण से
खण्डित हो जाता है कि उसने सौदा पश्चात् कभी भी प्रतिवादीगण को विक्रय पत्र.
के निष्पादन के लिये कोई सूचना ही नहीं दी। वादी स्वयं अपने भाग का पालन
करने में कभी भी रूचि, तैयारी व तत्परता नहीं दिखाया। लगभग 15 वर्षों के बाद यह दावा प्रस्तुत किया गया है, जो कि निश्चित ही समयावधि के बाहर प्रस्तुत
किया गया है। अतः यह प्रमाणित नहीं पाया जाता है कि वादी का दावा समयावधि
के भीतर है।
।। वाद-प्रश्न क्रमांक-07 का सकारण निष्कर्ष ।।
50.. वादी ने यह दावा संविदा के विशिष्ट पालन के लिये प्रस्तुत किया है।
5,46,610/-रूपये (पांच लाख छियालीस हजार छः सौ दस रूपये) में सौदा होना
बताया है और उक्त सौदा की राशि के अनुसार ही संविदा के विशिष्ट पालन के
लिये मूल्यांकन करते हुए उचित रूप से न्यायशुल्क चस्पा किया है। दूूसरा स्थायी
निषेधाज्ञा का अनुतोष चाहा गया है। इस संबंंध में उचित रूप से मूल्यांकन कर
उचित रूप से न्यायशुल्क प्रस्तुत किया गया है।
।। वाद-प्रश्न क्रमांक-08 का सकारण निष्कर्ष ।।
51.. वादी ने प्रतिपरीक्षण में स्वीकार किया है कि प्रतिवादी क्र.-01 के नाम से फौती
नामांतरण हो गया, की सूचना उसे वर्ष 2004 में प्रतिवादी क्र.-02 ने दी थी तथा
उसने मुख्य परीक्षण में बताया है कि दिनांक 02/04/2015 को प्रतिवादी क्र.-02
ने उसे सूचना दे दिया था कि प्रतिवादी क्र.-01 ने जो मुख्तियारनामा उसे दिया है,
उसे निरस्त कर दिया गया है। इसका आशय यह है कि वादभूमि का भूमिस्वामी
प्रतिवादी क्र.-01 है तथा दावा प्रस्तुति दिनांक 13/04/2015 के पूर्व ही वादी को
भली भांति प्रतिवादी क्र.-02से ही जानकारी हो गयी थी कि प्रतिवादी क्र.-02,
प्रतिवादी क्र.-01 का पॉवर ऑफ एटार्नी नहीं है। अतः किस आधार पर प्रतिवादी
क्र.-02 को उसने प्रकरण में अभियोजित किया है इस संबंध में कोई अभिवचन एवं
साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया है। प्रतिवादी क्र.-02 न तो भूमिस्वामी है, न ही पावर ऑफ
एटार्नी है और न ही जो प्रकरण में अनुतोष चाहा गया है उन अनुतोषाों को
प्रतिवादी क्र.-02 से विधि के अनुक्रम में दिलाया जाना संभव है। अतः ऐसी स्थिति
में प्रतिवादी क्र.-02 प्रकरण में न तो आवश्यक पक्षकार है और न ही उचित
पक्षकार है। अतः प्रतिवादी क्र.-01 का तर्क मान्य किया जाता है कि प्रतिवादी क्र.
-02 को मात्र इस आधार पर पक्षकार बनाया गया है कि वह वादी के दावा को
सहायता करेे। उसे वाद में खड़े रहने के लिये सहायता प्रदान करेे। प्रतिवादी क्र.
-02 की हैसियत मात्र एक गवाह की हो सकती है। बिना कारण ही पक्षकार
बनाया गया है। प्रकरण में प्रतिवादी क्र.-02 को अनावश्यक रूप से संयोजित किया
गया है। अतः यह प्रमाणित होता है कि प्रकरण में अनावश्यक पक्षकार का
कुसंयोजन है।
।। वाद-प्रश्न क्रमांक-04 का सकारण निष्कर्ष ।।
52.. प्रकरण में मौखिक सौदा होना बताया गया है। मौखिक सौदा के अनुसार
मौखिक रूप से मई-जून 2001 में विक्रय पत्र. का निष्पादन हुआ था। मई 2001
तक विक्रय पत्र का निष्पादन यदि वास्तव में सौदा हुआ था तो क्यों नही हुआ का
कोई स्पष्टीकरण नहीं है। वादी को यह भली भांति जानकारी थी कि वादभूमि में
प्रतिवादी क्र.-01 का नाम फौती नामांतरण हो गया है। वर्ष 2014 तक प्रतिवादी क्र.
-02 अपनी बहन प्रतिवादी क्र.-01 का पॉवर ऑफ एटार्नी रहा है और वर्ष 2014
तक प्रतिवादी क्र.-02 ने वादी के पक्ष में पंजीकृत विक्रय पत्र का निष्पादन क्यों
नहीं किया या वादी ने उससे क्यों नहीं कराया, का कोई स्पष्टीकरण नहीं है। अतः
ऐसी स्थिति में प्रतिवादी क्र.-01 का तर्क विधिक रूप से मान्य किया जाता है कि
वास्तव में कोई सौदा ही नहीं हुआ था, इसलिये विक्रय पत्र का निष्पादन नहीं
किया गया।
53.. Specific performance of a contract will ordinarily be granted,
notwithstanding default in carrying out the contract within the specified
period, if having regard to the express stipulations of the parties, nature of
the property and the surrounding circumstances, it is not inequitable to
grant the relief.
54. It is indisputable that in a suit for specific performance of contract
the plaintiff must establish his readiness and willingness to perform
his part of contract. The question as to whether the onus was
discharged by the plaintiff or not will depend upon the fact and
circumstance of each case. No strait-jacket formula can be laid down
in this behalf.
55.. The plaintiff must in a suit for specific performance of an agreement
plead and prove that he was ready and willing to perform his part of the
contract continuously between the date of the contract and the date of
hearing of the suit.
56.. In a suit for specific performance, it is required by the plaintiff to proof
the contract as still subsisting. He had in this suit to allege, and if the fact
was traversed, he was required to prove a continuous readings and
willingness, from the date of the contract to the time of the hearing, to
perform the contract on his part. Failure to make good that averment
brought with it the inevitable dismissal of his suit.
57.. Where in a contract for the sale of land the time fixed for completion is
not made of the essence of the contract, but the vendor has been guilty of
unnecessary delay, the purchaser may serve upon the vendor a notice
limiting a time at the expiration of which he will treat the contract as at
an end. In the present case plaintiff have served no such notice.
58.. संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद प्रस्तुत किया गया था। विक्रय प्रतिफल की 90
प्रतिशत राशि पूर्व में ही प्राप्त की जा चुकी थी। वादी के पक्ष में शेष विक्रय धन
भुगतान कर विक्रय विलेख को प्राप्त करने का सदैव इच्छुक और तत्पर था।
प्रतिवादी ने ही इस संबंध में चूूक की थी। वादी के द्वारा प्रस्तुत किया गया वाद
विहित अवधि के भीतर था। यह स्पष्ट किया गया कि संविदा के विनिर्दिष्ट पालन
का वाद परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 54 के अधीन 3 वर्ष की अवधि के भीतर
प्रस्तुत किया जाता है। 3 वर्ष की अवधि की गणना एग्रीमेंट में वर्णित दिनांक से
की जाएगी अथवा ऐसा कोई वर्णन न हो तो संविदा के विनिर्दिष्ट पालन से इंकारी
करने की दिनांक से की जाएगी। वर्तमान मामले में विक्रेता को सूचना पत्र प्राप्त
होने की दिनांक से संविदा के विनिर्दिष्ट पालन को करने से इंकारी होना मानी
गयी। तद्नुसार वाद विहित अवधि के भीतर होना माना गया। इस संबध में
माननीय न्यायदृष्टांत-हरनाम सिंह बनाम मंगत सिंह, ए.आई.आर. 2001
पंजाब-हरियाणा 257 लागूू होते हैं।
59.. Where in a contract for the sale of land the time fixed for completion is
not made of the essence of the contract, but the vendor has been guilty of
unnecessary delay, the purchaser may serve upon the vendor a notice
limiting a time at the expiration of which he will treat the contract as at
an end. In the present case plaintiff have served no such notice. इस संबंध में माननीय न्यायदृष्टांत-A.K.
Lakshmipathy (D) & ors. Vs. Rai Saheb Pannalal H. Lahoti Charitable
Trust & Ors. AIR 2010 SUPREME COURT 577 लागू होते हैं।
60.. वादी ने यह स्वीकार किया है कि उसके पास डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवालने सौदा
किया था, ऐसा कोई लिखित दस्तावेज नहीं है। दो डी.डी. देने के संबंध में कोई
लिखित दस्तावेज नहीं है। वर्ष 2014-2015 के संबंध में प्रस्तुत किस्तबंदी खतौनी
पावर ऑफ एटार्नी में भूमि स्वामी के रूप में डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल और प्रतिवादी
क्र.-01 का ही नाम दर्ज है। सौदा होने और रकम देने के बाद वादी ने ऐसा कोई
पेपर प्रकाशित भी नही कराया है कि उसने वादभूमि का सौदा कर लिया है और
अन्य व्यक्ति सौदा न करे । वादी ने प्रतिवादी क्र.-01 को अपना पड़ोसी होना
बताया है, उसके बाद भी उससे विक्रय पत्र के निष्पादन के लिये नहीं कहना या
लिखित नोटिस नहीं देना उसके आचरण में संदेह उत्पन्न करता है। प्रतिवादी क्र.
-02 जब तक पॉवर आफ एटार्नी होल्डर था, जब तब उसे भी विक्रय पत्र के
निष्पादन के लिये नोटिस नहीं देना भी वादी के आचरण को संदिग्ध बनाता है।
जबकि स्वयं वादी ने यह स्वीकार किया है कि प्रतिवादी क्र.-02 पॉवर ऑफ एटार्नी
होल्डर था, तब भी वह रजिस्ट्री करा सकता था।
61.. वादी ने यह भी स्वीकार किया है कि उसे डॉ.श्रीमती सुधा अग्रवाल और अनुपमा ने
लिखित में वादभूमि को कब्जे में दे रहे है, ऐसा दस्तावेज नहीं है। वादी ने
प्रतिपरीक्षण में यह भी स्वीकार किया है कि सौदे के 12-13 वर्ष बाद भी पैसा ले
लिया हो, रजिस्ट्री नहीं करा रहा हो, कहकर उसने न तो नोटिस दिया, न ही कोई
दावा पेश किया। वादी का दावा समयावधि से बाधित है। प्रतिवादी क्र.-02 प्रकरण
में अनावश्यक पक्षकार है। वादी के द्वारा वादभूमि का विक्रय करने का सौदा या
संविदा किया जाना प्रमाणित नहीं पाया गया है। दो डी.डी. के माध्यम से जो राशि
हस्तांतरित होना बताया गया है वह वाद भूमि के विक्रय के ही प्रतिफल की राशि
है, यह प्रमाणित नहीं होता है। वादी एवं उसके साक्षी खण्डित होकर अविश्वसनीय
हैं। दूसरी ओर प्रतिवादी क्र.-01 अखण्डित होकर विश्वसनीय साक्षी है। वादी स्वच्छ
हाथों से नहीं आया है। वह स्वयं कभी भी अपना तथाकथित सौदा के संबंंध में रजिस्ट्री कराने के लिये कभी तैयार व तत्पर नहीं रहा है। उसकी ओर से कोई इस
संबंध में रूचि ली गयी हो, प्रमाणित नहीं पाया जाता। अतः यह प्रमाणित नहीं होता
है कि वादी, वादभूमि का प्रतिवादी क्र.-01 से पंजीकृत विक्रय पत्र निष्पादित करा
पाने का अधिकारी है।
।। सहायता एवं वाद-व्यय ।।
62.. उपरोक्त विवेचन एवं निष्कर्ष तथा समस्त दस्तावेजी तथा मौखिक साक्ष्य से यह
पाया जाता है कि वादी अपने दावा को प्रमाणित करने में असफल रहा है। अतः
वादी का दावा अस्वीकार कर निम्नलिखित आज्ञप्ति पारित की जाती है-
() वादी दावा अस्वीकार।
() वादी, प्रतिवादी क्र.-01 का वाद व्यय वहन करेगा।
() अधिवक्ता शुल्क प्रमाणित होने पर या परिशिष्ट के अनुसार जो भी कम हो देय हो।
तद्नुसार आज्ञप्ति बनायी जावे।
63.. व्यवहार वाद समाप्त। नस्तीबद्ध कर अभिलेखागार भेजा जावे।
मेरे निर्देश पर टंकित।
दुर्ग दिनांक -24/12/2016
(
कु.संघपुष्पा भतपहरी)
षष्ठम अपर जिला न्यायाधीश, दुर्ग
जिला-दुर्ग (छ.ग.)
प्रमाण पत्र
मैं पुष्टि करता हूं कि इस पी.डी.एफ. फाईल की अंर्तवस्तु अक्षरशः वैसी ही है
जो मूल निर्णय में टंकित की गयी है।
स्टेनोग्राफर का नाम- अजय कुमार देवांगन
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Write commentsमहत्वपूर्ण सूचना- इस ब्लॉग में उपलब्ध जिला न्यायालयों के न्याय निर्णय https://services.ecourts.gov.in से ली गई है। पीडीएफ रूप में उपलब्ध निर्णयों को रूपांतरित कर टेक्स्ट डेटा बनाने में पूरी सावधानी बरती गई है, फिर भी ब्लॉग मॉडरेटर पाठकों से यह अनुरोध करता है कि इस ब्लॉग में प्रकाशित न्याय निर्णयों की मूल प्रति को ही संदर्भ के रूप में स्वीकार करें। यहां उपलब्ध समस्त सामग्री बहुजन हिताय के उद्देश्य से ज्ञान के प्रसार हेतु प्रकाशित किया गया है जिसका कोई व्यावसायिक उद्देश्य नहीं है।
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